कल्याण सिंह रावत बायोलाजी के एक रिटायर्ड लेक्चरार हैं,जो देहरादून के नाथूवाला की गलियों में रहते हैं। लोग उन्हें प्यार से कल्याण जी बुलाते हैं,और वह बहुत ही साधारण और विनम्र आदमी हैं। गढ़वाल के ज्यादातर युवाओं की तरह,उन्होंने भी एक अच्छी नौकरी और उज्जवल भविष्य के लिए पहाड़ों से पलायन कर लिया था। इन्होंने नाथूवाला में बायोलोजी लेक्चरार के तौर पर ज्वाइन कर लिया। यहां आकर शादी की,बच्चे हुए और देहरादून को ही अपना घर बना लिया।
अपने पुराने दिनों को याद करके कल्याण बताते हैं कि,साल में एक बार जब मैं पहाड़ों में अपने घर जाता था हर बार मुझे एक बात परेशान करती थी, जहां मैने अपना बचपन बिताया था उन पहाड़ों की घटती हरियाली से मुझे दुख होता था। वो इस सोच में पड़ गए कि अकेले कैसे वो गांव समुदाय में रहने वालों को शामिल करके पर्यावरण की रक्षा और उसके संरक्षण के लिए,लोगों को सजग बना सकते हैं कयोंकि उन्हें अच्छी तरह से पता था कि अकेले वह ज्यादा सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकते इस बड़े काम में उन्हें गांव वालों की जरुरत पड़ेगी ही।
1995 में अपनी भतीजी की शादी में जब वह ग्वालदम गए, कल्याण के दिमाग में एक तरकीब आई, एक दुल्हन का उसके घर को छोड़ के जाने मतलब विदाई को और विशेष बनाने का तरीका। वो बताते हैं कि- जब शादी का उत्सव खत्म हो गया तब मैंने अपनी भतीजी से कहा कि अपने प्यार की निशानी के तौर पर वो अपनी मां के बगीचे में एक छोटा पौधा लगा दे जो माता पिता के लिए उसके प्यार को दर्शाएगा और उसे वो पौधा अपने माता पिता की याद दिलाएगा। इसके पीछे उनका एक ही तर्क था कि जब एक लड़की अपना घर छोड़ कर अपने ससुराल जाती है तो एक नाजुक पौधा लगा दे,तब दुल्हन की मां उस पेड़ की देखभाल इसलिए करती है कि वो उसकी बेटी का तोहफा है और पूरा परिवार उस पेड़ का ध्यान रखेगा और उसे हर परेशानी से बचाएगा और ऐसा करके हरियाली वापस आएगी।
यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान लोगों के बीच ऐसे फैल गया जैसे जंगल में आग। और हां महिलाओं के बीच यह ज्यादा पसंद किया गया,कयोंकि वो इस तरकीब से भावनात्मक तौर से जुड़ रहीं थी।अतः “मैती” आन्दोलन का बीज लोगों के बीच बोया जा चुका था। मैती शब्द को गढ़वाल व कुमांऊ के मैत शब्द से लिया गया,जिसका मतलब है दुल्हन का पैतृक घर।
इस नवीन वनरोपण आंदोलन ने केवल अपने जन्मस्थान उत्तराखंड के लोगों के दिलों को नहीं छुआ, राज्य की सीमाओं पर भी लोग इस परंपरा को मानने लगे और अब तो इसने सभी सीमाएं लांघ कर विदेशों में भी अपनी जगह बना ली है, जैसे कि नेपाल,दुबई,इंडोनेशिया और कनाडा में भी लोग इसको एक परंपरा की तरह ले रहें।
भावनाओं पर पूरी तरह आधारित, मैती परंपरा में आज कई गुना वृद्धि हुई है और किसी सरकारी या गैर सरकारी,या प्रदेश सरकार के आर्थिक मदद के बिना यह बहुत प्रगति पर है। जो परंपरा एक आदमी के मिशन की तरह शुरु हुई थी आज वह एक जन आंदोलन में बदल गई है, जिसमें लगभग दो लाख पेड़ सिर्फ उत्तराखंड में लगाया गये हैं। मशहूर कवि रार्बट फ्रोस्ट की कुछ लाइनें- “सोने से पहले मुझे मीलों ज़ाना है, और मीलों जाना है सोने से पहले” कल्याण सिंह रावत के मैती आंदोलन के लिए बिल्कुल सही बैठती हैं।