शह-मात की राजनीति के पाठशाला बने अखाड़े

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    saint,akhada haridwar

    हरिद्वार। अखाड़ों को सनातन संस्कृति का पोषक व संवाहक कहा जाता है। सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए संतों ने राजाओं का साथ देकर मुगल आततायियों से कई युद्ध लड़े। यही कारण रहा कि राजा-महाराजाओं ने संतों के कौशल व सनातन संस्कृति की रक्षा करने के लिए उनके अमूल्य योगदान के लिए जागीरें तक दान में दे दीं। यही जागीरें आज विवाद का कारण बन चुकी हैं और अखाड़े आज राजनीति की पाठशाला का रूप ले चुके हैं।

    मौजूदा दौर में अखाड़ों में सनातन संस्कृति का पोषण व उसका प्रचार-प्रसार कम और राजनीति अधिक होने लगी है। सभी में समानता का भाव रखने वाले संत अब एक-दूसरे के साथ शह-मात का खेल खेल रहे हैं। यही कारण है कि अखाड़ों के संतों के बीच विवाद समय-समय पर खुलकर सामने आने लगे हैं। इनमें से अधिकांश विवाद अखाड़ों की अकूत सम्पदा पर वर्चस्व कायम रखने तथा पदों के लिए लालसा के कारण उत्पन्न हो रहे हैं।
    श्री पंचायती अखाड़ा निर्मला में दो संतों के गुटों के बीच उत्पन्न हुआ विवाद भी इसी की परिणीति है। विदित हो कि श्री निर्मल पंचायती अखाड़े के श्रीमहंत ज्ञानदेव सिंह महाराज ने अखाड़े के सचिव श्रीमहंत बलवंत सिंह पर अखाड़े की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाते हुए उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया था। जिसके बाद दोंनों गुटों के बीच विवाद गहराता चला गया। श्रीमहंत बलवंत सिंह ने अपने गुट के संतों के साथ बैठक कर श्रीमहंत संतोख सिंह को अखाड़े का नया श्रीमहंत घोषित कर दिया था। इसके बाद एक बार फिर अखाड़े की राजनीति में हलचल उत्पन्न हो गई थी।
    श्रीमहंत संतोख सिंह को अभी श्रीमहंत बने पांच दिन भी नहीं बीते थे कि संतोख सिंह अचानक निर्मल अखाड़े पहुंचे और श्रीमहंत ज्ञानदेव सिंह में अपनी आस्था जताते हुए बलवंत सिंह पर कई आरोप मढ़े। संतोख सिंह के इस प्रकार अचानक पलटी मारने से बलवंत सिंह के खेमे में हलचल मच गई। संतोख सिंह अचानक पलटी कैसे मार गए इसको लेकर बलवंत सिंह खेमेे में तरह-तरह की चर्चाएं हैं। भले ही सचिव बलवंत सिंह को भूमाफियाओं का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन है, लेकिन श्रीमहंत ज्ञानदेव सिंह महाराज भी राजनीति के माहिर खिलाड़ी होने के साथ संत समाज के बीच अपनी अच्छी पैठ रखते हैं। विद्वान होने के साथ किसको किस तरह से मनाना है, वह अच्छी तरह से जानते हैं। यही कारण है कि बलवंत सिंह खेमे में से संतों का श्रीमहंत ज्ञानदेव सिंह के समर्थन में एक-एक कर खड़ा होना बलवंत सिंह खेमे को जहां कमजोर कर रहा है।
    वहीं यह भी साबित कर रहा है कि श्रीमहंत ज्ञानदेव सिंह महाराज की संत समाज के बीच पकड़ खासी मजबूत है। जिस तरह की राजनीतिक उठा-पटक भारतीय राजनीति में समय-समय पर देखने को मिलती है और एक-दूसरे को शह-मात का खेल चलता है, अखाड़ों में भी उसी प्रकार की राजनीति दिखाई दे रही है। किसको किस तरह से मात देनी है यह अखाड़ों की नीयति व दिनचर्या में शामिल हो चुका है। यही कारण है कि कभी सनातन संस्कृति के पोषक व संवाहक कहे जाने वाले अखाड़े आज राजनीति की पाठशाला बन चुके हैं।
    यह केवल निर्मल अखाड़े की कहानी नहीं है। श्री उदासीन पंचायती अखाड़ा नया में भी सम्पत्ति के कारण इस तरह का विवाद काफी समय से चला आ रहा है। यहां भी अखाड़े के महंत व कोठारी के कई दावेदार हैं, जो समय-समय पर बैठक कर स्वंय को अखाड़े का सर्वे सर्वा बताते रहते हैं। यहां भी राजनीति के माहिरों की कमी नहीं है। श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी के श्रीमहंत शंकर भारती जो 25 वर्षों तक अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष रहे, उन्हें भी अखाड़े की राजनीति का शिकार होना पड़ा था और अपने जीवन के अंतिम काल में अखाड़े से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। सवाल पैदा होता है कि जब संत समाज स्वंय की उठापटक में ही व्यस्त है और एक-दूसरे को शह मात देने के लिए रणनीति बनाने में ही जुटे रहते हैं तो वह ऐसे में क्या सनातन संस्कृति का पोषण कर पाएंगे और कैसे उसका प्रचार-प्रसार करेंगे।