वैली ऑफ वर्डस में ‘खाकी में इंसान’ किताब पर हुई चर्चा

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    देहरादून के मधुबन होटल में आयोजित इंटरनेशनल लिटरेचर एंड आर्ट फेस्टिवल में उत्तराखंड पुलिस के एडीजी अशोक कुमार कि किताब ‘खाकी में इंसान’ पर चर्चा की गई।इस किताब कि कहानी एक ऐसे आईपीएस अधिकारी के भावनाओं को व्यक्त करता है जिसने अपना कैरियर हमारी पुलिस को और अधिक मानवीय और संवेदनशील बनाने में लगा दिया और आज भी वह इसके लिए प्रयासरत हैं। अशोक कुमार का जन्म 9 नवंबर 1964 को हरियाणा के पानीपत जिले के गांव कुराना में हुआ है।शुरुआती शिक्षा गांव के सरकारी स्कूल में संपन्न हुई और बी.टेक आई.आई.टी दिल्ली और एम.टेक की उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1989 में भारतीय पुलिस सेवा में आए और अपने दो दशक के समय में उन्होंने इलाहाबाद, अलीगढ़, रुद्रपुर, चमोली, हरिद्वार, शाहजहांपुर, मैनपुरी, नैनीताल, रामपुर, मथुरा, पुलिस मुख्यालय देहरादून,गढ़वाल परिक्षेत्र तथा पुलिस महानिरिक्षक,कुमायूं परिक्षेत्र के पद पर रहे हैं।

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    यह किताब सूचनापरक तो है पर अशोक कुमार द्वारा किए गए कार्यों का सरकारी लेखा-जोखा, आत्मकथा या अनुसंधान नहीं है। इलाहाबाद से लेकर कुमाऊँ और गढ़वाल परिक्षेत्र के तराई इलाकों तक विभिन्न पदों पर कर्त्तव्यपालन करते हुए इस आईपीएस अधिकारी ने अपने प्रशंसनीय और बेदाग करियर में जो अनुभव बटोरे हैं उसे उसने ‘लीग से हटकर – इंसाफ की डगर’, ‘पंच परमेश्वर या…’ ‘भू- माफिया’ ‘तराई में आतंक की दस्तक’, ‘जेलर जेल में’, ‘अंधी दौड़’, ‘दहेज और कानून’ और ‘पुलिस: मिथक और यथार्थ’ जैसे 16 शीर्षकों के तहत व्यक्त किया है।

    पुलिस की कार्य प्रणाली, मित्र पुलिस के श्लोगन, विवेचनाओं में सुधार,पुलिस जवानो के लिए विभाग द्वारा सुधार हेतु कार्य, उत्तराखंड पुलिस के कार्य करने के तरीक़ों के बारे में  व पुस्तक से सम्बंधित सवाल किए गए, जिनका उत्तर देते हुए  अशोक कुमार द्वारा कहा कि अच्छी पुलिस व्यवस्था से सचमुच गरीब व असहाय लोगों की जिन्दगी में फर्क लाया जा सकता है।हालांकि वर्तमान व्यवस्था में कुछ खामियाँ आ गई हैं फिर भी यदि ऊँचे पदों पर बैठे लोगों में  दृढ़ इच्छाशक्ति हो, इंसानियत के नजरिए से सोचने की क्षमता हो और कुछ कर दिखाने का जज्बा हो तो यही व्यवस्था, यही सिस्टम लोगों की मदद करने में बहुत ही कारगर सिद्ध हो सकता है। साथ ही कहा कि यदि हम काम न करने के 50 तरीके अपना सकते हैं तो काम करने के भी 50 रास्ते खोज सकते हैं। बस जरूरत है अपने को साहब न समझकर जनसेवक समझने की ।और पीड़ित की दृष्टि से काम करने की।