वनाधिकार कानून के मामले में उत्तराखंड बहुत पीछे

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देहरादून। उत्तराखंड में वनाधिकार कानून को लागू करने में अब तक की सरकारें लापरवाह और उदासीन हैं। वन क्षेत्र में सदियों से निवास करने वाले समूहों व समुदायों का उत्पीडऩ तक किया जा रहा है। सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक मामले में बेहद दयनीय जीवन जीने वाले समुदायों पर अब तक की सरकारें विशेषकर वन महकमा दमनकारी ही रही हैं।

उत्तरांचल प्रेस क्लब सभागार में वन पंचायत संघर्ष मोरचा, वन जन श्रमजीवी यूनियन की तरफ से आयोजित सम्मेलन में वनाधिकार कानून 2006 पर गंभीर मंथन हुआ। देश के कोने कोने से आए वनवासियों ने अपना दर्द बयां किया।
रिटायर्ड आईएएस चंद्र सिंह व पर्यावरणविद् वीरेंद्र पैन्यूली ने कहा कि वनवासियों के प्रति सभी सरकारे क्रूर रही हैं। वनाधिकार कानून 2006 बनने के बाद भी हालात बेहतर नहीं हुए हैं। केंद्र और राज्यों की सरकारों का रवैया पूरी तरह से नकारात्मक रहा है। इसलिए अब संघर्ष के जरिए ही हालात बदलने की कोशिश होनी चाहिए। किसान सभा के सुरेंद्र सिंह सजवाण ने कहा कि वन पंचायतों को लेकर अभी भी हुकूमत पशोपेश में है। वह सरमाएदारों व कारपोरेट को तो हर तरह से मदद दे रही है लेकिन वनवासियों की उपेक्षा कर रही है। वनवासियों की समस्याएं पहाड़ जैसी हैं जिनके बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है। वनाधिकार अधिनियम को लागू करने की इच्छा किसी स्तर पर नहीं दिख रही। अशोक चौधरी व तरुण जोशी ने कहा कि उत्तराखंड समेत बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तरप्रदेश में वनवासियों पर कहर बरपाया जा रहा है। भूमि के साथ ही आजीविका छीनी जा रही है। सरकारों का रवैया पूरी तरह से उपेनिवेशावादी मानसिकता वाला है। हमें आज भी नागरिक नहीं माना जा रहा है। संवैधानिक हर हकूक नहीं दिये जा रहे हैं। रोमा एनके शुक्ला, मौहम्मद शफी, मौहम्मद मीर ने कहा कि वन गुर्जरो को बेदखल किया जा रहा है। उन पर बे सिरपैर के आरोप जड़े जा रहे हैं। इसके पीछे बड़ी साजिश काम कर रही है। प्रदेश भर में वनाधिकार अधिनियम को लागू नहीं किया गया है।