देहरादून, 2019 के लिए राष्ट्रीय दलों ने अपनी-अपनी बिसात बिछ आनी शुरू कर दी है। उत्तराखंड के पॉलिटिक्स में राज्य आंदोलन के समय से ही जन भावनाओं से जुड़ा मुद्दा पहाड़ की राजधानी पहाड़ में हो रहा है जिसके लिए गैरसैंण कहीं ना कहीं चुनावी वक्त पर ठंडे बस्ते से निकलकर राजनीतिक गलियारों में जोरशोर से उछल ने लगता है, यह मुद्दा सरकारी सत्ता पक्ष के लिए एक सुरक्षा आवरण का काम भी करता है क्योंकि इसमें सरकार के सारे विकास के दावे छिपकर रह जाते हैं और जन भावनाओं से खिलवाड़ लगातार होता रहता है, सच्चे पहाड़ का हितेषी होने का दावा करने वाले दल हमेशा इसका श्रेय लेने के लिए होड़ में लगे रहते हैं।
यही कारण है कि आनन-फानन में त्रिवेंद्र सरकार ने आगामी बजट को लेकर गैरसेंण में पूरा बजट सत्र कराने का निर्णय लिया है और इस का संशोधित कार्यक्रम राजभवन भेजा गया है। गौरतलब है कि यह बजट सत्र पहले देहरादून और फिर गैरसेंण में प्रस्तावित था अब सरकार चाहती है कि पूरा बजट सत्र गैरसैंण में करके एक मिसाल कायम की जाए, जिसके लिए त्रिवेंद्र सरकार ने अपने पूर्व के प्रस्ताव को बदलकर राज्यपाल डॉक्टर के के पॉल की मंजूरी के लिए बजट सत्र का प्रस्ताव दोबारा राजभवन में भेजा है, जिस पर राजभवन की मुहर लगने के बाद इस बार उत्तराखंड का बजट गैर सेंड में होगा।
इधर मुख्य विपक्षी दल सरकार के इस निर्णय पर सवाल उठाने पर लगा है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का कहना है कि उनके कार्यकाल में जितना काम विकास का हुआ है उसी पर सरकार आगे काम कर रही है। गैरसेंण में सरकार ने अभी तक कुछ भी जमीनी काम नहीं किया है, जो काम कांग्रेस के शासनकाल में हुए हैं।
ऐसे में सवाल उठने भी लाजमी है कि सरकार कोई ठोस निर्णय ना ले कर क्यों सरकारी तामझाम के साथ एक बार फिर गैरसैंण में डेरा डालने जा रही है? इससे राज्य की जनता को क्या हासिल होगा? क्या जनता के द्वार विकास की कोई किरण पहुंच पाएगी? या यूं ही उत्तराखंड के जन भावनाओं को चुनावी रंग में रंग कर फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?