पहाड़ों की रानी मसूरी के सबसे पुराने संस्थानों में से एक, मसूरी लाइब्रेरी 175 साल की होने वाली है। क्या आप अपने आपको मसूरी की इस खास इमारत के इतिहास का हिस्सा बनाना चाहते हैं तो बस किसी से भी गांधी चौक, लाइब्रेरी या किताबाघर के लिए पूछें और आप शहर के बीचो बीच इस लाइब्रेरी को टाउन स्क्वायर में खड़ा पाऐंगे। इसे ये नाम विक्टोरियन समय की इसी इमारत से मिला है।
मसूरी के पुराने गाईड आपको बताते हैं कि ब्रिटिश व्यापारियों, मिलिट्री ईस्टेबलिश्मेंट, अधिकारियों और एक मिशनरी के संयुक्त प्रयासों से इस लाइब्रेरी की स्थापना हुई, जो स्कॉट और पिट की जमीन पर बनी और जिसे बाद में लैंडोर कॉन्वालेसेंट डिपो के कमांडेंट मेजर एडमेंड स्वेटेनहम को दे दिया गया।
1843 में, एक पुस्तकालय समिति का गठन किया गया और इस समिति में दून के अधीक्षक वैंसिटर्ट को चैयरमैन बनाया गया। इसके बाद, इसे ट्रस्ट में ट्रांसफर कर दिया गया ताकि ‘यह लाइब्रेरी हमेशा मसूरी लाईब्रेरी कमेटी का एक हिस्सा बन कर रह सके।’
शायद हमारे इतिहास को लिखने वाले इस बात को जानते थे की कई सफर किताब के एक पन्ने को पलटने से शुरू होती हैं। ये किताबघार या लाइब्रेरी सिविलाइज्ड वर्ड का अंतिम जीवित प्रतीक बचा हुआ है।
आजदी के बाद, स्वर्गीय मेजी गैन्ट्जर ने लाइब्रेरी की बागडोर संभाली, ठीक वैसे ही जैसे कि आज भी उनका परिवार संभाला रहा है। बीस सालों तक, हिल स्टेशन की सबसे पुरानी संस्था के सदस्य के रूप में और अब करीब छह साल से हॉनररी सचिव प्रोफेसर गणेश सैली कहते हैं, “हम इस पुस्तकालय को लाइफबोट के रूप में देखते हैं;जहां किताब प्रेमियों के लिए हर तरह की किताबें हैं मिलती है।’
लाइब्रेरी की ग्लास पैन वाली खिड़कियां मॉल रोड पर खुलती हैं, जो सूरज की रोशनी से पूरी मंजिल को चकाचौंध कर देती हैं जिससे रीडिंग रुम में मानो और चमक आ जाती है। हर तरह के इतिहासकारों, शोधकर्ताओं और विद्वानों को उनके पसंद की किताब लाईब्रेरी में मौजूद लकड़ी की आलमारी में मिल ही जाती है।
लाइब्रेरी के अध्यक्ष प्रमोद साहनी जिनकी देखरेख में लाईब्रेरी का काम होता है कहते हैं, “175 साल समय के सागर में एक बूंद समान है, लेकिन किताबें सदा के लिए होती है, आने वाली पीढ़ी के लिए इस धरोहर को संजोेए रखना जरुरी है।”