देवभूमि उत्तराखंड की मकरसंक्रांति में क्या है खास, पढ़िए

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(देहरादून) मकरसंक्रांति त्यौहार साल के पहले त्योहार के रुप में दस्तक दे चुका है।देश के हर कोनों मे लोग हर्षों उल्लास से मेलों और त्यौहारों का आनंद उठा रहें हैं और देवोंभूमि उत्तराखंड में तो इसका अलग ही महत्व है।आजकल के आधुनिक समय में हर कोई इन त्यौहारों की अहमियत भूलता जा रहा लेकिन उत्तराखंड के मेलों और त्यौहारों जैसे कि गेंडी की कौथिक’ लोगों को फिर से जगाने और उनकी आत्मा को तरोताजा करने का काम करते रहती है।  

दिन उगने के साथ ही बड़ी तादाद में लोगों की भीड़ को पहाड़ों की राह पर चलतो देखा जा सकता है, जो एकसाथ पौड़ी गढ़वाल के दिल में बसी थाल नदी पर जाते हैं। मंकरसंक्रांति मनाने के लिए यह एक पारंपरिक स्थल है जो पिछले चार दशक से दो दिन के इस उत्सव के लिए मान्यता प्राप्त है। लगभग 40-45 गांव से 10किमी के आसपास के गांवों के करीब 2000 निवासी हर साल इस स्थल पर मकरसंक्रांति के पावन अवसर पर एकत्रित होते हैं।खासकर के इन क्षेत्रों कि लड़कियां और बहुऐं जो लंबे समय से घर नहीं आती इस दिन को मनाने के लिए खासकर यहां आती हैं।

जो नई नवेली दुल्हन होती है जैसे कि निशा कहती है कि “वो पिछले एक साल से इस त्यौहार और इस मेले के आने का इंतजार कर रही थी ताकि वो अपने घर आ सके। आज जब वो अपने घर हैं वो बताती हैं कि हमारे लिए यह इसलिए भी खास है क्योंकि इसकी वजह से हम अपनी विवाहित बहनों और दोस्तों से मिल पाते हैं,यह त्यौहार हमारे लिए मिटिंग प्वाइंट का काम करता है।”

आंखो में चमक लिए भूमरी देवी गरम गरम जलेबी खाते हुए बताती हैं कि “यह मेला साल में एक बार आता है, और मैं इस मेले में अपनी बेटियों और बहूओं से मिलने आती हूं इसके बाद फिर वापस अपने घर चली जाती हूं जहां मैं अपने पालतू जानवरों और भेड़ो के साथ अकेले रहती हूं।”  

यहां के आम लोगों के लिए,इस तरह के मेले और त्यौहार रोज की दिनचर्या से हटकर कुछ अलग करने और उत्सव मनाने का जरिया होता है।यह दो दिन ऐसे होते है जब घर की औरतें और बच्चे तैयार होकर मेले का आनंद लेते है और खरीदारी करते हैं।इसके साथ ही वे मेलों में मौजूद अलग अलग तरह के पारंपरिक खाने का लुत्फ उठाते हैं और अपने दोस्तों और परिवार के सदस्यों से मिलते हैं जिनसे शायद वो एक साल पहले इसी जगह और इसी समय पर मिले थे।