दिनांक-10-10-2017
गांव की सुबह चिड़ियों की पहली चहचाहट के साथ ही खुल गयी। लेकिन रात के सफर की थकान और इस ठंड में गर्म बिस्तर के मोह के कारण हम उस घर की चहल-पहल को नजर अंदाज कर नींद की हल्की-फुल्की झपकीयों का आनंद लेते रहे। सुबह की चाय ने हमारा ये आलस्य दूर कर दिया। चाय की चुस्की के साथ मेरे साथी भवन के अंदर की काष्ठ कला को अभिभूत होकर देखते रहे, लेकिन मेरे लिये ये सब नया नहीं था, क्यों की रौंतेली रंवाई के इस खूबसूरत परिवेश में पला-बढ़ा हूँ।
कमरे से बाहर निकलते ही सामने विशाल पहाड़ और उस पर घने जंगल को चिरती टेड़ी-मेड़ी पतली से पगडंडी जो नीचे गहरी खाई में बहती सुपीन नदी की तरफ जाती है। गहरी खाई में बहती नदी को देख कर लगा की कल रात अंधेरे में हमने काफी लंबा सफर तय किया। हमारे साथी गाँव के अदभुत और बेजोड़ काष्ठ कला के भव्य मकानों और उसके आस-पास फैली प्राकृतिक छटाओं के साथ ग्रामीणों की स्थानीय वेषभूषा की फोटो अपने कैमरे में कैद करने में मशगूल थे। जिस घर में हम रूके थे वहां शौचालय की पक्की व्यवस्था थी जिसके लिये मैंने प्रधानमंत्री जी के प्रति शौच करते हुऐ कृतज्ञता भी प्रकट करी।
घर की रसोई में बड़े जोर-शोर से ग्राम प्रधान प्रहलाद रावत की पत्नी और परिवार की अन्य महिलायें हमारे लिये सुबह का नाश्ता तथा लंच पैक तैयार कर रहे थे। प्रधान जी गाँव से आगे के सफर के लिये खच्चर और पोटर की व्यवस्था पर लगे थे। बाहर आंगन में हमाम पर पानी गर्म था जो इस इलाके में लगभग हर घर में होता है जिसमें लकड़ी जलाकर पानी गर्म किया जाता है। जो एक तरह का पहाड़ी गीजर है। इसमें जितनी मात्रा में ठंडा पानी डालो ये उतनी मात्रा में गर्म पानी बाहर देता है। सभी मेहमानों ने गर्म पानी से आवश्यकता अनुसार अपनी देह को सफर के लिये तरो ताजा किया।
सुबह की गुनगुनी धूप में बाहर छजे पर पहाड़ी जखिया के तुड़के में बनी स्वादिष्ट मैगी के साथ गर्मा-गर्म चाय ने ऊर्जा का नया संचार किया। विदाई से पूर्व प्रधान प्रहलाद भाई ने हमें स्थानीय हिमांचली टोपी के सम्मान से नवाजा तथा दल की एक मात्र महिला सदस्य तनु जोशी को प्रधान जी की अध्यापिका पत्नी ने शाल भेंट कर सम्मानित किया। आतिथ्य संस्कार के इन भावुक छणों से हम अभिभूत थे। रैकचा गाँव और ग्राम प्रधान के इस अपनेपन के हम आजीवन आभारी रहेंगे।
ठाकुर रतन भाई के नेतृत्व में हमने रैकचा गाँव से सटे फिताडी गाँव के ग्राम देवता सोमेश्वर महाराज के मंदिर से यात्रा का प्रारंभ किया। यहां के हर मंदिर की छत पर लकड़ी से बना मुनाल और बकरी इस हिमालयी समाज के ऐतिहासिक पहलू को दर्शाता था। मंदिर में लकड़ी के मुख्य द्वार पर हर दौर के सिक्के और नाग तथा हाथी घोड़े के अनेक भित्ति चित्र खुदे होने से हम मंदिर की पौराणिकता को समझ आती है। जो लगभग यहां के हर प्राचीन मंदिर में देखने को मिलता है। महासू मंदिर के उल्ट यहाँ के अधिकांश मंदिर तीन गर्भ गृह की जगह एक ही गृभ गृह के कम ऊंचाई वाले मंदिर थे।
अंततोगत्वा हम लंबे समय से ठप पड़ी सड़क पर सिधे-सिधे रैकचा से कासला गाँव के लिये चल पड़े जो यहाँ से लगभग दो-ढाई किलोमीटर की दूरी के सिधे-सपाट रास्ते पर था। सड़क के इर्द-गिर्द लाल केदार-मारछा की खेती हमें अभिभूत कर रही थी। पीठ पर घास का बोझा लादी ग्रामीण महिलाऐं इस पर्वतीय राज्य की अन्य ग्रामीण महिलाओं के जस के तस हालातों का प्रतिनिधित्व कर रही थी। मेरे कालेज के साथी जयमोहन राणा, रोजी राणा, रैकचा के प्रधान प्रहलाद रावत, राजपाल रावत, प्रहलाद पंवार, दिनेश सिंह,जुनैल सिंह,और हमारा गाइड सुरेन्द्र चार खच्चरों पर हमारा समान लाद कर काफिले में साथ हो लिये।
कासला गाँव पंहुच कर हमने मंदिर प्रांगण में बच्चों को पढ़ा रही आंगनवाड़ी कार्यकत्री और ग्रामीणों से चाय पीते हुऐ स्थानीय समस्याओं पर बातचीत करी। हमारे साथ स्थानीय एसडीएम की उपस्थिति की पूर्व खबर और सर-बडियार की हमारी यात्रा के पुराने किस्सों और अनुभवों के कारण यहाँ के विद्यालय चाक चौबंद दिखाये दे रहे थे।
कासला से राला गाँव की ऊंची पगडंडी पर बढ़ते हुऐ नदी की ठीक उस पार ऊंची पहाड़ी के ढालदार मैदान पर एक बहुत बड़ा गाँव लिवाडी दिखाई दिया जो इस क्षेत्र की पंचगाई पट्टी का सबसे आखिरी गाँव था। गाँव के लिये एक ऊंची चट्टान पर सड़क काटता हुआ एक जेसीबी भी नजर आया। जिसे देखकर ऐसा महसूस हो रहा था मानो 15 अगस्त सन 1947 को यह जेसीबी सड़क काटने के लिये दिल्ली से निकला हो इसे लिवाडी आते-आते 70 साल लग गये हों। ये असल में सिर्फ एक जेसीबी ही नही हमारी सरकारों की कछुवा चाल का जीता-जागता उदाहरण था। जिसे देख कर हम खुशी जाहिर करें या अफसोस यह कह पाना बड़ा मुश्किल था। इस गाँव में मेरा दोस्त नरेन्द्र परमार अभी हाल में ही शिक्षक के रूप में तैनात हुआ है। गाँव की विकटता और जिस बदहाल संचार व्यवस्था का जिक्र उसने कुछ दिन पहले मुझसे किया था वो मैं भली-भांति समझ पा रहा था।
कासला से लगभग 2 किलोमीटर तक पशुओं के सूखे गोबर से भरे और उन पर मंडराते काले किट-पतंगो से भरी पगडंडी पार कर हम जब राला गाँव पंहुचे तो पानी की एक पाइप लाइन से बहते बेतहाशा शितल जल से हमने अपनी तीस बुझाई। गाँव के बिच से गुजरते हुऐ हम गाँव वालों की निगाहों के सवालों से रूबरू हुऐ। जो शायद हम से हमारा गंतव्य पूछ रहे थे। लेकिन हमारे पथ की दिशा उन्हें हमारे भराड्सर की यात्रा का बोध कर रही थी।
राला गाँव के स्कूल पंहुच कर बेहद अनुशासन पूर्वक बच्चों द्वारा “गुड मार्निग सर” के सामूहिक अभिवादन से अभिभूत होना पड़ा। पिछे छूटा जब भी कोई साथी आता तो बच्चे ऐसे ही बार-बार खड़े होकर सबका अभिवादन करते। स्कूल का भवन सर-बडियार की अपेक्षा बेहद अच्छी हालात में था। बगोरी-हर्षिल के एक नौजवान अध्यापक भी तन्मयता से बच्चों को पढ़ा रहे थे। स्कूल की भोजन माता सभी आगुंतकों के लिये कुर्सी ला रही थी। आंगन साफ सुथरा वा आस पास की तरतीब से कटी झाड़ीयां बता रही थी की ये सिर्फ हमें दिखाने के लिये किया गया ड्रामा नहीं अपितु वास्तव में स्कूल प्रबंधन बेहतर अध्यापकों के हाथ में था। जो हमारे लिये काफी सूकून देय एहसास था।
बाकी साथियों को पिछे छोड़ हम कमजोर चाल वाले यात्री अजय कुकरेती, तनु जोशी और मैंने चाय का मोह त्याग सामने खड़ी चढाई के लक्ष्य को समय से पूरा करने का निर्णय लिया। खट्टी-मीठी टाफी को चूसते हुऐ हम ने जैसे ही उस ऊंचे रास्ते को पार किया तो सामने एक और ऊंची पगडंडी का कठिन सफर मुंह उठाये खड़ा था। हमने थोड़ा मखमली घास पर सुस्ताते हुऐ थकान को मिटाया और बाकी सभी साथियों का इंतजार करने लगे। धिरे-धिरे खच्चर वालों के साथ हमारे सभी साथी पंहुच गये। जिनमें स्थानीय साथियों और मनमोहन असवाल, रतन भाई, सौरभ और गणेश काला की रफ्तार सबसे तेज थी। वे सबसे देर में निकलते और सबसे पहले पंहुच जाते। जबकि मुकेश बहुगुणा ,दलबीर रावत, पिंटू धस्माना और नेत्रपाल यादव बेहद संतुलित चाल से चल रहे थे।
थोड़ा सुस्ताने और तंबाकू-पानी के बाद हम फिर ऊंचे पहाड़ों के इस खुशनुमा सफर पर बढ़ चले। समय रहते हमें अपने आज के पड़ाव देववासा तक पंहुचना था। हालांकि गाँव वालों का मानना था की आज हम किसी भी सूरत में देववासा नहीं पंहुच पायेंगे। फिर भी हम हिम्मत रखते हुऐ चल पड़े। दोपहर पार हो चुकी थी बेहद भूख लगने के बावजूद भी रतन भाई की डांट के डर से मैं भोजन करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
अब सबसे आगे चलने का मोर्चा मैंने संभाल रखा था लेकिन जल्दी ही स्थानीय सहयात्रीयों और मनमोहन असवाल हमें पिछे छोड़ते हुऐ आगे निकल पड़े। एक लंबी खड़ी चढाई को पार कर रतन असवाल ने सबको भोजन करने की सलाह दी तो मेरी जान में जान आ गयी। मैने अपने लंच पैक को खोला तो प्रधान प्रहलाद रावत ने चार पूरी और मिक्स सब्जी का एक बेहतरीन बंच तैयार कर रखा था। जिसे मैंने एक विदेशी शैलानी की भांति एक साथ बरगर की तरह खाना शुरू किया। एक लंच पैक एक्स्ट्रा था वो प्रधान जी के कहने पर मैने अपने खच्चर वाले सहयोगी और उसके साथी को दे दिया। इसी तरह हम सब ने बांट कर भोजन किया और बोतल में भरे ठंडे पानी से अपनी प्यास बुझाई।
लगभग चार बजे भोजन से तृप्त होने के बाद हम आगे बढ़े तो बुग्याल और पेड़ों का खूबसूरत साझा जंगल देखने को मिला। अब चलते-चलते बेतहाशा थकान से हम ढिले पढ़ने लगे। इसलिए वस्तु स्थिति का भांपते हुऐ ठाकुर रतन असवाल ने इस “सुराल” के जंगल में ही एक जगह पानी के नजदीक रात्री विश्राम करने का फैसला लिया।
खच्चरों से सामान उतारा गया और फटाफट उपयुक्त जगह पर टेंट खड़े किये गये। हमारे खच्चर वाले ने जब खच्चर की पीठ से प्लान उतारा तो बेहद आत्मीयता से खच्चर की पीठ को सहलाने लगा। दोनों के बेहद भावात्मक लगाव को देख लगा की पशु और पशु स्वामी के बीच के ये रिश्ता आज का नहीं सदियों पुराना है। एक दूसरे के प्रति समर्पण का यह भाव मुझे अंदर तक प्रभावित कर गया। खच्चर वाले से बातचीत कर जान-पहचान बढ़ी तो पता चला वो फिताडी गाँव का किर्तम सिंह है जिसे मैंने प्यार से मामटी बोलना शुरू किया जो गढ़वाल के भैजी और कुमाऊँ के दाज्यू के समान आत्मीयता भरा संबोधन है। किर्तम मामटी भराड़सर के देवता का अनन्य भक्त था जिस कारण उसे नीजी हांथों से तैयार भोजन को ही खाने की बंदिशे थी। जब उसका खाना बनता तो हम सब में से किसी को भी उसके चूल्हे को छूने तक की इजाजत ना थी।
खैर मुकेश बहुगुणा के नीजी टेंट को महिला आरक्षण के तहत अलग से तनु को समर्पित कर हम एक टैंट में तीन लोग काबिज हो गये। टेंट से उचित दूरी पर जंगल से लकड़ी इक्कठा कर भट्टा जलाया गया। खिचड़ी के साथ फिताडी से जयमोहन द्वारा लायी गयी बकरे की एक रान को छोटे-छोटे टुकड़े में भून कर सिग्नेचर की वाइन के साथ परोसा गया। मैं और तनु तथा अजय कुकरेती भाई शरीफ और सज्जन शाकाहारी प्राणी की भांती खिचड़ी खा कर ही संतोष पूर्वक सो गये।