बागेश्वर क्षेत्र की सबसे बुजुर्ग महिला देवकी देवी ने तकरीबन तीन दिन पहले कोरोना का पहला टीका लगवाया है। वह पूरी तरह स्वस्थ हैं। 110 वर्षीय देवकी कोरोना की महामारी से व्यथित हैं। वो कहती हैं कि उन्होंने अपने जीवनकाल में ऐसी बीमारी कभी नहीं देखी। शुक्रवार को कोरोना का टीका लगवाने से खुश देवकी का कहना है कि जीवन जीना एक कला है। संयमित खानपान और अनुशासित दिनचर्या से कोई भी इंसान लंबे समय तक स्वस्थ और चिरयुवा रह सकता है। वह गरुड़ विकासखंड के भिटारकोट गांव में रहती हैं। वर्ष 1911 में जन्मी देवकी देवी को मतदाता दिवस पर प्रशासन शतायु मतदाता के रूप में चार बार सम्मानित कर चुका है।
बाड़खेत गांव की देवकी देवी का विवाह 12 वर्ष की उम्र में भिटारकोट निवासी हरीदत्त के साथ हुआ था। उनकी तीन बेटियां हुईं। उनके पति ने दूसरा विवाह भी किया था, जिनसे तीन पुत्र हैं। करीब 36 वर्ष पहले उनके पति का देहांत हो गया। उनके भरे-पूरे परिवार में तीन बेटियां तुलसी देवी, लीला देवी और देवी हैं। पति की दूसरी शादी से तीन पुत्र प्रेम बल्लभ कांडपाल, कृपाल दत्त कांडपाल और रमेश कांडपाल हैं। पुत्र और पुत्रियों के 19 बच्चे हैं। देवकी की इच्छा अपने सभी नाती-पोतों का भरा-पूरा परिवार देखने तक जीवित रहने की है।
सुबह जल्दी उठने की आदत: देवकी देवी आज भी सुबह जल्द उठती हैं। कहती हैं इसकी बचपन से आदत रही है। वह खाने में वह केवल शाकाहारी भोजन लेती हैं। रोटी, दाल और सब्जी उनका प्रिय आहार हैं। कभी-कभार हल्का चावल भी लेती हैं। इस उम्र में उनके दांत पूरी तरह से ठीक हैं। उन्हें सुनाई भी देता है, हालांकि आंखों पर चश्मा चढ़ चुका है। वह पैदल चल-फिर लेती हैं। इस उम्र में भी वह पांच किलोमीटर पैदल चलने की हिम्मत रखती हैं।
अंग्रेजों के जमाने के दिन: इस उम्र में भी देवकी देवी की याददाश्त पूरी तरह से दुरुस्त है। उन्हें अंग्रेजी शासन की याद है। वह बताती हैं कि उस समय उनके मायके बाड़खेत में एक बंगला हुआ करता था। वहां अंग्रेज अफसर आकर रुकते थे। अंग्रेजों के आने पर गांव वाले अनाज, फल, सब्जियां ले जाते थे। अंग्रेजों के पास काफी सुंदर घोड़े भी होते थे। उनको बांधने के लिए अलग से घुड़शाला बनी होती थी।
अपनों को न भूलें: उनका कहना है कि पूरे जीवनकाल में ऐसी बीमारी नहीं देखी। इसने एक इंसान को दूसरे को से दूर कर दिया है। बीमारी के डर से लोग अपनों को भूलते जा रहे हैं। लोगों को एक साथ मिलकर रहना चाहिए। वह कहती हैं कि पुराने जमाने में लोग एक-दूसरे का दुख-दर्द समझते थे। आपस में प्रेम व्यवहार था। गांव के सभी लोग सुख-दुख में शामिल होते थे। जब से पूंजीवाद बढ़ा है, अपने भी पराए होने लगे हैं। धन कमाने की होड़ में संयुक्त परिवार खत्म होते जा रहे हैं। लोगों का मन और परिवार छोटे हो गए हैं। गुलाम देश में जो भाईचारा और अपनापन था, आजादी के बाद वह खत्म होता जा रहा है। इसे देखकर दुख होता है।