पर्व जिसका पहला न्यौता भगवान को

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    पौराणिक परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं को आज भी खुद में संजोये हैं हरेला का पर्व,  इस पर्व को मनाने वाले ना सिर्फ अपने लिए बल्कि पुरे विश्व को हरियाली का संदेश देते हैं और शांति की कामना करते हैं इस पर्व की शुरुवात ही अनोखे ढंग से होती है पहला न्यौता भगवान के नाम पर रख कर पुजा अर्चना की जाती है उसके बाद क्षेत्र के लोग धूमधाम से इस पर्व को मनाते है कहां मनाते ये पर्व और कैसे आज हम आपको बताते हैं।

    हरेला पर्व पर भीमताल में भव्य मेला कई दशकों से आज भी प्रचीन परंपरा को संजोए है। परंपरा के अनुसार हरेला मेला का शुभारंभ का पहला निमंत्रण पत्र आज भी भगवान हनुमान और शिव को दिया जाता है। मेला समिति द्वारा शुक्रवार को रामलीला मैदान के मंदिर में आमंत्रण भगवान को चढ़ाया गया। मान्यता है कि ऐसा करने से पूरे वर्ष भगवान की छत्र-छाया क्षेत्र में रहती है। इस बार मेले का आयोजन 16 से 21 जुलाई तक रहेगा। पूरे कुमाऊं में भीमताल और चंपावत ही एक ऐसा स्थान है जहां हरेला मेला होता है।

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    नौकुचियाताल निवासी पंडित रवींद्र कर्नाटक ने बताया कि भीमताल के मेले के इतिहास के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है। पूर्वजों के के अनुसार हल्द्वानी नगरी मालदारों की नगरी के नाम से विख्यात थी यह वह शहर था जो कि अमीर लोगों कर नगरी कई जाती थी। यह वह समुदाय था जो कि हर त्यौहार को संपन्नता से मनाता था। इसी से लगे भीमताल में कास्तकार इनके संपर्क में आए पर संपन्न नहीं होने के कारण सर्व संमत्ति से यह निर्णय लिया कि एक ऐसा त्यौहार मनाएं जिसमें क्षेत्र के सभी लोग सम्मलित हों और यह मेला दूरदराज तक फैले। भीमताल में पूर्व में आणु ( वर्तमान में विकास भवन ) नामक स्थान धान की खेती के लिए प्रसिद्ध था। इस समय जब धान की रोपाई की जाती थी तो इसमें कई लोग सम्मिलित होते थे और इसी ने धीरे-धीरे मेले का स्वरूप ले लिया। पूर्व में हरेला मेला डाट के उपर स्थित हरेला खेत में मनाया जाता था और इस स्थान से आणु के हरे भरे खेत साफ दिखाई देते थे। वहीं चंपावत के दिगाली चौड़ समेत अन्य स्थानों में भी हरेला मेले का आयोजन किया जाता है।

    यह पर्व वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। प्रथम चैत्रमास की दशमी को, द्वितीय श्रावण संक्रांति तथा तीसरा आश्रि्वन के दशहरे को मनाया जाता है। यह पर्व कृषि व धन-धान्य का प्रतीक है। हरेला पर्व से दस दिन पूर्व दो टोकरियों में मिट्टी भरकर उसमें पांच या सात प्रकार के अनाज बोए जाते हैं। दसवें दिन हरेले की पूजा करने के बाद इन अनाजों से निकले पीले तृणों को सिर पर धारण किया जाता है। तथा इस पर्व में डीकरे,  शिव-पावर्ती की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा भी की जाती है।  डीकरे में शिव के संपूर्ण परिवार कार्तिक, शिव, नंदी, गणेश ,पार्वती, शिव के वाहन मूसक और बैल की मूर्तियां भी सम्मिलित की जाती हैं। कई सालों से भगवान को पहला आमंत्रण भेजने की परंपरा को मैं भी देख रहा हूं। कब से यह परंपरा प्रारंभ हुई इसकी जानकारी नहीं है। पर अपने आप में यह परंपरा आलौकिक है