बीजेपी के सर्जिकल स्ट्राइक के बाद क्या कांग्रेस दिखा पाएगी नए प्रयोग का साहस

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चित्र: प्रशांत बडूनी

कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों और चार पूर्व मंत्रियों को तोड़ लेने तथा उसके दर्जन भर पूर्व विधायकों को कमल छाप टिकट देकर चुनाव में उतारने के अलावा भी भाजपा ने कांग्रेस की चैतरफा घेराबंदी में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाजपा ने उत्तराखंड में 64 कमल छाप उम्मीदवारों की अपनी सूची से यह जता दिया कि सत्ता पाने के लिए उसे आलोचना अथवा अपने काडर की रत्ती भर चिंता नहीं है। इससे साफ है कि आगामी 15 फरवरी को राज्य विधान सभा चुनाव के लिए जो मतदान होगा उसके लिए भाजपा चुनाव प्रचार भी जबरदस्त पैमाने पर करने वाली है। उसे लगता है कि नोट बदलने की केंद्र सरकार की मुहिम के बाद बाकी सारे दल पैसा खर्च करने के मामले में अब उसके पासंग भी नहीं होंगे। इसके अलावा अवसरवाद के दाग को झुठलाने के लिए भाजपा को अपना प्रचार बेहद आक्रामक शैली में करना पड़ेगा। इसमें भाशाई संयम भी वैसे ही ताख पर रख दिए जाने की आशंका है जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों और आगे-आगे खर्च की सीमा के अतिक्रमण की ढिठाई दिखाने की भाजपा के प्रति आशंका बन रही है।

भाजपा ने डेढ़ दर्जन से ज्यादा एकदम नए चेहरों को कमल छाप सौपकर कांग्रेस पर भी युवा और बेदाग उम्मीदवारों को पंजा छाप सौंपने का दबाव बढ़ा दिया है। भाजपा की चुनावी रणनीति के रूझान से साफ है कि उसने बहुत लंबी तैयारी के बूते उत्तराखंड के आगामी विधान सभा चुनाव के लिए इतना बड़ा जुआ खेला है। टिकट जिस तरह बांटे गए हैं उससे साफ है कि कमल छाप का आवंटन तय करते समय केंद्रीय नेतृत्व ने सबसे अधिक ध्यान उम्मीदवारों की जिताउ क्षमता पर दिया है। इसके लिए बाकायदा अनेक राउंड में सर्वे कराए गए और उन्हीं के आधार पर भाजपा ने अपने अनुभवी नेताओं की बड़े पैमाने पर बगावत की आशंका को दरकिनार करके दलबदलुओं और नए लोगों को भी उम्मीदवार बनाया।

सर्वे तो प्रशांत किशोर के मार्फत कांग्रेस द्वारा भी कराए जाने के संकेत हैं, मगर भाजपा की इतनी सघन राजनैतिक व्यूह रचना के बाद क्या कांग्रेस अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी जितना जोखिम उठा पाने का साहस दिखा पाएगी? क्योंकि राज्य में विपक्षी दल होने के कारण भाजपा को कुछ भी खोने की कोई चिंता ही नहीं है। कांग्रेस के लिए भी उम्मीदवार चुनने में नए प्रयोग की पूरी गुंजाइश है क्योंकि साल 2012 के विधान सभा चुनाव में जीते कांग्रेस के करीब दर्जन भर विधायक तो भाजपा के कमल छाप पर चुनाव लड़ रहे हैं। इसलिए उनकी जगह अपेक्षाकृत युवा और बेदाग उम्मीदवार उतारने का अभूतपूर्व मौका कांग्रेस के पास है। इस मौके को कांग्रेस अपने बुजुर्ग नेताओं की जगह उनकी संतानों अथवा उनके चहेतों को पंजा छाप पर चुनाव लड़ाकर और व्यापक बना सकती है। इससे भाजपा के अवसरवाद की धार भोथरी करने में कांग्रेस को बड़े पैमाने पर मदद मिल सकती है। इसके अलावा भाजपा के बागियों को टिकट अथवा गुपचुप समर्थन देकर अपने बागियों को निपटाने की पिटी-पिटाई लकीर का फकीर बनने का रास्ता तो कांग्रेस के सामने खुला है ही।

भाजपा ने तो बाकायदा रणनीति के तहत नए चेहरों को कमल छाप पर अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में उम्मीदवार बनाया है जो ज्यादातर गैर भाजपाई उम्मीदवारों को चुनते रहे हैं। इनमें षामिल हैं गंगोलीहाट से मीना गंगोला, नैनीताल से संजीव आर्य, सिंतारगंज से सौरभ बहुगुणा, भगवानपुर से सुबोध राकेश, यमकेश्वर से ऋतु खंडूड़ी, पौड़ी से मुकेश कोली, धारचूला से वीरेंद्र सिंह पाल आदि। इनमें से सभी हालांकि राजनीति में तो नौसिखिए नहीं हैं मगर खुद पहली बार चुनाव मैदान में उतारे गए हैं। इनमें से सुबोध, ऋतु, संजीव और सौरभ की तो मजबूत राजनैतिक विरासत रही है। देखना यही है कि भाजपा द्वारा अपनी चुनावी संस्कृति का अपहरण करके आमूल-चूल उसे अपना लिए जाने के बाद कांग्रेस अब अपनी चुनावी रणनीति में किसी कल्पनाशीलता की झलक दे पाएगी? सवाल यह भी है कि अपने पांच साला शासन के बाद दोबारा सत्ता पाकर उत्तराखंड में बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस को सत्ता सौंपने के जनादेश का रूख मोड़ने में कांग्रेस कैसे कामयाब होगी? कुल मिलाकर पंद्रह फरवरी का चुनाव राज्य में हरीश रावत के राजनीतिक कौशल की भी अग्निपरीक्षा होगी, क्योंकि अब उत्तराखंड में कांग्रेस के वही एकमात्र खेवनहार बचे हैं।