उत्तराखंड में वनों के जीर्णोंधार के जनक और उत्तराखंड के ग्रीन अम्बेसडर “जंगली जी” यानि जगत सिंह चौधरी
उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले के कोट मल्ला गांव में रहते हैं।जगत सिंह सीमा सुरक्षा बल के पूर्व सैनिक रह चुके हैं जो अब जंगली के नाम से मशहूर है। जगत सिंह हिमालय की गोद में पले-बढ़े और सन् 1968 में सीमा सुरक्षा बल में शामिल होने का फैसला किया। एक गढ़वाली किसान के परिवार में पैदा होने की वजह से बचपन से ही उनका जुड़ाव प्रकृति से तो था ही पहाड़ो के लिए भी उनका प्रेम अतुल्यनीय था।
1973 में जब वह अपने परिवार से मिलने के लिए पहाड़ों पर लगभग छः किलोमीटर की चढ़ाई कर रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक महिला बुरी तरह से जख्मी हालत में थी जिसका पैर घास काटते हुए फिसल गया था और वह गिर गई थी। इस एक घटना ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया। उन्होंने उस महिला की मदद तो कि ही लेकिन इस समस्या का स्थायी सामाधान ढूढने के लिए वो बेचैन हो उठे। उस महिला की परेशानी देखकर उन्होंने अंदाजा लगा लिया कि उनके गांव के अन्य लोगों को पहाड़ की खतरनाक चढ़ाई चढ़कर खाने के लिए लकड़ी लानी पड़ती है।
बहुत सोचने के बाद उन्होंने सोचा कि क्यों न आस पास के इलाकों में बंजर पड़ी ज़मीन पर ही घास फूस और पेड़ उगाया जाए और क्यों न उसे ही उपजाऊ बनाया जाए। लेकिन उस वक्त उन्हें गांव की जमीन पर खेती करने के लिए मनाही हो गई जिसकी वजह से उनको दूसरा रास्ता निकालना पड़ा। इसी बीच उनके पिता ने उन्हें 2 हेक्टेयर बंजर जमीन देकर उसपर फसल उगाने की शर्त रख दी वो भी ऐसी जगह जहां पानी का एक बूंद भी मिलना मुश्किल था।
1974 से वह जब भी सर्दियों की छुट्टी में घर आते अपने पिता जी के दिए हुए उस बंजर जमीन के टुकड़े पर पेड़ पौधे और घास उगाने के लिए बेस तैयार करते। 1980 में उन्होंने अपनी वर्दी त्याग दी और पूरी तरह से उस बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने में लग गए जिससे वो गांव वाली की मदद कर सके। उन्होंने उस बंजर जमीन के किनारों में तरह तरह के पौधे लगाए जैसे कि रामबन्स, सिवाली और नागफली (कैक्टस) जो उस जमीन में बाड़ की तरह काम कर सके।
उसके बाद उन्होंने सीढ़ीनुमा जमीन का ढलान घरों की तरफ करा जिससे भू-क्षरण हो सके और बारिश का पानी ज्यादा लंबे समय तक रुक सके। इसके बाद उन्होंने ऐसे पेड़ पौधे लगाना शुरु किए जो लोगों के लिए ईंधन और चारे का काम कर सके। उस समय पानी की कोई सुविधा ना होने की वजह से वह 3 किलोमीटर दूर से पानी के बर्तन अपने कंधों पर उठा कर लाते थे। इसके बाद क्षेत्र के युवा लोगों को अपने साथ मिलाकर उन्होंने अलग अलग प्रकार के घास और औषधिय पौधे उगाएं। रिटायरमेंट के बाद से वो सुबह शाम जंगल की देख रेख करते हैं। उनके इन प्रसासों को देख कर गांव वालों के अंदर भी अपनी बंजर ज़मीनों को हरा भरा बनाने का जज्बा़ आया और फिर जगत सिंह के साथ मिलकर सभी गांव वालों ने अपनी जमीनों पर पेड़ पौधे उगाना शुरु कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि देखते ही देखते बहुत सारे छोटे बाग आस पास के इलाकों में दिखने लगे।
उनका अगला प्रयास था गांव वालों के लिए आजीविका के माध्यम बनाना और वह केवल अदरक, हल्दी, दाल, सब्जियां,जड़ी-बूटी और फूल जैसी कैश क्रॉप उगाने से हो सकता था। उन्होंने बड़े पैमाने पर ऐसी फसलें उगाने का फैसला किया। जगत सिंह के लिए जंगल ही उनका सब कुछ है और वो उसी जंगल में रहने भी लगे इसलिए लोग उन्हें “जंगली” बुलाने लग गए।
पर्यावरण मंत्रालय ने उनके मिक्सड एग्रो वन के महत्व को और उनके विकास कार्य़ को भी समझा। उनके इस योगदान को 1998 में भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने उन्हें राष्ट्रीय इंदिरा गांधी वृक्षमित्र पुरस्कार से नवाजा। सन् 2012 में उत्तराखण्ड के राज्यपाल अजीज कुरैशी ने उन्हें उत्तराखण्ड के ग्रीन अम्बेसडर की उपाधि दी। अपने कामों के लिये जगत सिंह को उत्तराखण्ड गौरव अवार्ड, गौरा देवी अवार्ड, पर्यावरण प्रहरी अवार्ड के साथ साथ कई सरकारी संगठनों, डिपार्टमेंट, और इंस्टीट्यूटों ने उन्हें 30 से भी ज्यादा पुरस्कारों से नवाज़ा है।
आज जगत सिंह जी की कड़ी मेहनत और लगन से उत्तराखंड में एक लाख से ज्यादा पेड़,और 60 से भी ज्यादा प्रजाति के जड़ी बूटी वाले पौधे हमारे बीच हैं।
जगत सिंह के पास पर्इ्न्होयावरण को लेकर कोई डिग्री नही है लेकिन इतने सालों से वो भारत के उच्च विश्वविधालयों जैसे की दिल्ली युनिर्वसिटी, जेएनयू, जी.बी पंत इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन इन्वारमेंट एंज डेवलेपमेंट, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविधालय,आदि में लेक्चर देते हैं।
5 सितंबर सन् 1997 को जगत सिंह जी ने 20 यात्रियों के साथ अपने गांव कोट मल्ला से दिल्ली तक पैदल यात्रा कि जिसमें उन्हें पूरा 1 महीना लगा। यात्रा का मुख्य कारण था हिमालयी क्षेत्रों में महंगें रसोई गैस व महंगी बिजली। पूछने पर वो बताते हैं कि उनके दिमाग मे यह बात थी कि पहाड़ों में रहने वाले किसी भी तरीके से प्रकृति को नुकसान नही पहुंचा रहे अलबत्ता यह लोग पहाड़ व जंगलों का संरक्षण ही कर रहे। बस इस बात से उन्होंने यह पद यात्रा का सोचा और इस दौरान पड़ने वाले गांव के लोगों को उन्होंने रायल्टी के बारे में जागरुक भी किया। 1997 के दशक में रायल्टी की बात करने वाले यह पहले थे। वो बताते है कि दिल्ली पहुंच कर रायल्टी का मेमोरेन्डम उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री एंव राष्ट्रपति को सौंपा दिया था जिसके लगभग तीन महीने बाद जापान की संसद में यह बात छिड़ी की भारत का कोई राज्य रायल्टी का बात कर रहा है। इसके बाद भारत सरकार ने इसपर फैसला लिया और सन् 2007 में हिमालयी राज्यों में 36 करोड़ रुपया ग्रीन हाउस के रुप में मिला साथ ही केंद्र से हिमालयी राज्यों को प्रतिवर्ष 1000 करोड़ रुपया ग्रीन बोनस के रुप में दिया जाना स्वीकृत हुआ।
जगत सिंह का जीवन आज की पीड़ी के लिये मिसाल है इस बात की अगर मन में अपने समाज के लिये कुछ करने का जज्बा़ हो ते रास्ते अपने आप निकलते जाते हैं।