मॉम : कमजोर पटकथा और पावरफुल परफॉरमेंस

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रवीना टंडन की मातृ के बाद इसी थीम पर श्रीदेवी की फिल्म ‘मॉम’ पर्दे पर आई है। दोनों फिल्मों की मूल कहानी एक ही है, लेकिन ट्रीटमेंट के मामले में ‘मॉम’ काफी अलग है, लेकिन कई कमजोरियों के चलते ‘मॉम’ उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती।

मातृ की तरह ‘मॉम’ की कहानी भी दिल्ली की है। देवकी (श्रीदेवी) दिल्ली के एक स्कूल की टीचर है। उनकी क्लास में पढ़ने वाली आर्या (सजल अली) रिश्ते में आर्या देवकी की सौतेली बेटी है। आर्या की मां के निधन के बाद उसके पापा ने देवकी से शादी की, जिससे देवकी की अपनी एक बेटी है। आर्या को देवकी की बेटी से बेहद लगाव है, लेकिन देवकी को वो अपनी मां का दर्जा देने में संकोच करती है। इसे लेकर दोनों के बीच तनाव की स्थिति है। देवकी जरूर आर्या को अपनी ही बेटी मानकर उसका हर तरह से ख्याल रखती है, लेकिन आर्या देवकी के प्यार को महसूस करना ही नहीं चाहती।
वेलेंटाइन डे की पार्टी में आर्या के साथ पढ़ने वाला लड़का उसके साथ बदसलूकी करने की कोशिश करता है और फिर अपने भाई तथा साथियों के साथ जबरन आर्या का अगवा करके चलती कार में उसे साथ गैंगरेप किया जाता है। आर्या किसी तरह से बच जाती है। दिल्ली पुलिस का अधिकारी मैथ्यू फ्रांसिस (अक्षय खन्ना) इस केस की जांच शुरू करता है, लेकिन कोर्ट सबूतों को खारिज करते हुए आरोपियों को रिहा करती है, तो देवकी खुद आगे आती है और बेटी के दोषियों को सजा देने की मुहिम शुरू करती है। देवकी के इस मिशन में निजी जासूसी का काम करने वाला दयाशंकर (नवाजुद्दीन) भी मददगार साबित होता है। जैसे-जैसे देवकी का मिशन आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे कहानी आगे जाती है और मिशन की कामयाबी के साथ क्लाइमेक्स पर पंहुचती है।
महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार, खास तौर पर गैंगरेप के बढ़ते मामले समाज में चिंता का सबब हैं। टीनेज बच्चियों के साथ गैंगरेप की घटनाओं के संवेदनशील विषय को मॉम में सौतेली बेटी के प्रति मां की जिम्मेदारी और प्यार के साथ जोड़कर एक तरह से मां के किरदार को हीरोज्म दिया गया, जिसके चलते कहानी बेहद फिल्मी होती चली गई।
निर्देशक रवि उदयावर ने कहानी की संवेदना पर ध्यान रखने की जगह मॉम को हीरो बनाने पर ज्यादा जोर दिया, तो कहानी का संतुलन बिगड़ता चला गया। क्राइम थ्रिलर फिल्मों की सबसे बड़ी जरूरत होती है कि आने वाले सीनों की दर्शकों को भनक तक न लगे और वे चौंके, लेकिन यहां तो क्लाइमैक्स तक का अंदाज बहुत पहले हो जाता है। रवि उदयावर ने देवकी के किरदार को चमकाने के लिए आसपास के किरदारों को भी कमजोर छोड़ने में संकोच नहीं किया। क्लाइमैक्स में अक्षय खन्ना और नवाज के किरदार भी इसी वजह से कमजोर पड़ जाते हैं।
फिल्म की अच्छी बातों की बात करें, तो विषय संवेदनशील है, जिससे हर उम्र और वर्ग की महिलाएं खुद को जोड़ पाती हैं। गैंगरेप जैसे मामलों में कोर्ट के रवैये पर भी प्रहार किया गया है। श्रीदेवी ने अपने किरदार को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक मां की छपटाहट के हर भाव को परदे से जोड़ती हैं। आर्या का किरदार निभाने वाली सजल अली बेहद प्रभावशाली हैं और बतौर एक्ट्रेस उम्दा काम करती हैं। छोटी उम्र में इतनी गंभीरता और परिपक्वता कम देखने को मिलती है।
देवकी के पति के रोल में अदनान सिद्धीकी प्रभावशाली रहें। नवाजुद्दीन एक बार फिर बाजी मारते हैं। अपने कमजोर किरदार को वे अपने गेटअप और संवाद अदायगी के साथ इसे दिलचस्प भी बनाते हैं और तालियां भी बंटोरते हैं। अक्षय खन्ना के तेवर अच्छे रहे, लेकिन किरदार कमजोर रहा, तो बात नहीं जमी। मेन विलेन के रोल में अभिमन्यु सिंह ओवर एक्टिंग का बुरी तरह से शिकार हुए और निराश करते हैं। बतौर निर्देशक रवि उदयावर ने अच्छी कोशिश की।
सिनेमाफोटोग्राफी से लेकर तकनीकी पहलुओं पर ध्यान दिया। श्रीदेवी के किरदार को लेकर उनकी मेहनत और फोकस पर्दे पर नजर आता है। काश उन्होंने कहानी और दूसरे किरदारों को भी महत्व दिया होता।
मॉम श्रीदेवी की पावरफुल परफॉरमेंस और नवाज के चलते दिलचस्प बनती है। विषय की संवेदनशीलता भी है, लेकिन फिल्मी शैली इसके प्रभाव को कम करते हैं, इसलिए उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती। रिपीट वेल्यू नहीं है। एक बार देखी जा सकती है। बॉक्स ऑफिस पर कोई बड़ी कामयाबी की उम्मीद नहीं की जा सकती।