लोक भाषाओं के संरक्षण में ‘उड़ान’ से जगी उम्मीद

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उत्तराखंड राज्य निर्माण की मूल भावना में से एक स्थानीय बोली-भाषाओं का संरक्षण और संवर्द्धन भी था लेकिन अब तक जितनी भी सरकारें आई राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन स्थानीय बोली-भाषा गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी के उत्थान के लिए कोई ठोस कदम नही उठा पाई । ऐसे में ऋषिकेश में एक निजी स्कूल उड़ान द्वारा अभिनव पहल शुरू किया गया है जिससे भाषा की समृद्धता के प्रति उम्मीद जगी है।

उत्तराखंड की प्रमुख भाषा गढ़वाली और कुमाऊनी विलुप्त होने की कगार पर है और ऐसे में वहीं, एक आशा की किरण ऋषिकेश के उड़ान स्कूल से जगी है। स्कूल में लोगों की सहायता से गरीब बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है । हिन्दी और अंग्रेजी के साथ ही उड़ान स्कूल में एक विषय के तौर पर गढ़वाली और कुमाऊनी भी सिखाई जाती है, जिसके फलस्वरुप यहां पढ़ने वाले बच्चों को फिर चाहे वो गढ़वाली हो या यूपी, बिहार, बंगाल के सभी को गढ़वाली बोली भाषा की समझ आने लगी है।

आशा की किरण उड़ान स्कूल में जरूर दिखती है लेकिन सरकारी प्रयासों के बिना लोकभाषाओं का संरक्षण संभव नहीं है, समय की मांग है कि गढ़वाली, कुमाऊनी जैसी लोकभाषाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाया जाए।

उत्तराखंड में लम्बे समय से गढ़वाली और कुमाऊनी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने और लोक भाषा एकेडमी के गठन की मांग होती रही है और राज्य में जौनसारी, बुक्सा, थरुआटी, भोटिया और राजी लोकभाषाएं बोलने वाले भी हैं, जिनकी संख्या अधिक नहीं है। राज्य में कुमाऊनी और गढ़वाली बोलने वालों की संख्या लगभग पच्चीस-पच्चीस लाख है, जबकि इन भाषाओं को समझने वालों की संख्या कहीं अधिक है, फिर भी सरकार की ओर से ऐसे कार्यो में अभी तक दिलचस्पी नही दिख रही है।

उड़ान स्कूल के संचालक डॉ. राजे नेगी ने बताया कि, “स्कूल में बच्चों को प्रार्थना भी गढ़वाली में करवाई जाती है और स्कूल का मकसद है कि नई पीढ़ी को लोकभाषा गढ़वाली और कुमाऊनी के प्रति रुची जगाना है।”