हिमनदों के बिना कैसे बचेंगी गंगा-यमुना

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देश के दर्जन भर पहाड़ी राज्यों में प्राकृतिक आपदा सबसे अधिक तबाही उत्तराखंड में ही मचा रही हैं। जवानी की दहलीज पर खड़े इस राज्य को भूकंप और बाढ़ दोनों से ही खासा खतरा है। उपर से भूस्खलन तो आए दिन की बात है। इससे बचने का एकमात्र उपाय पर्यावरणविदों की निगाह में राज्य के संवेदनशील इलाकों में मनुष्य की घुसपैठ को सीमित करना, नदी-नालों, जंगलों से छेड़छाड़ पर लगाम लगाना ही है। मनुष्य के हस्तक्षेप को हिमनदों वाले इलाके में रोकने की यह राय देसी और विदेशी दोनों ही पर्यावरणविद और हिमालयी भूगोल के विषेशज्ञ दे रहे हैं। जीवनदायी और पुण्य पावन गंगा नदी का स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर वैज्ञानिकों के अनुसार तेजी से सिकुड़़ रहा है। उत्तराखंड के तहत अन्य प्रमुख ग्लेशियर यमुनोत्री, पिंडारी और शिखर कामेट, काफिनी, मैकटोली, मिलम, नमिक, रालम, सुदरढूंगा, बंदर पूंछ, चैराबाड़ी बमक, डोकरियानी, दूनागिरि,, खटलिंग, नंदा देवी समूह, सतोपंथ और भागीरथी खर्क, टिपरा बामक का भी कमोबेश यही हाल है। उनमें मानव दखल बढ़ने से उनके आसपास कचरे के ढेर साफ करने के लिए भी सेना को विषेस अभियान चलाने पड़ते हैं। इन ग्लेषियरों के लिए केदारनाथ आपदा सबसे बड़ा संकेत है। इसके बावजूद धार्मिक पर्यटन बढ़ाने के नाम पर चारधाम यात्रा रूट पर सदाबहार सड़क बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना षुरू कर दी गई है।
मानव दखल और जलवायु में गर्मी बढ़ने के कारण गंगोत्री ग्लेशियर में नई झील बन गई है जिससे उसके नीचे के क्षेत्रों में बाढ़ आने पर केदारनाथ जैसी किसी आपदा की चेतावनी वैज्ञानिक दे रहे हैं। यह चेतावनी वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने वहां के सर्वेक्षण के आधार पर दी है। उनके अनुसार केदारनाथ आपदा भी उसके उपर स्थित चैराबाड़ी ग्लेशियर में विशाल झील बनने और फिर उसके फट जाने से ही आई थी। गंगोत्री ग्लेशियर में इस झील के कारण गौमुख के बजाए अब भागीरथी उसके दाएं से निकलने लगी है। हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर टूट कर झील बनने की यह अकेली घटना नहीं है। बगल के राज्य हिमाचल प्रदेश में पिछले दो साल में प्राकृतिक झीलों की संख्या 596 से बढ़कर 705 हो गई है। इस तरह समूचे मध्य हिमालय के ग्लेशियरों के अस्तित्व पर खतरे की तलवार लटक रही है। मध्य हिमालयी क्षेत्र महाहिमालय के दक्षिण में फैली पर्वत श्रृंखला है। इसकी चोड़ाई 40 से 60 किमी ओर उंचाई औसतन 3500 मीटर है। इसके दोनों तरफ गहरी घाटियां और ढलानों पर घने जंगल हैं। दुनिया की खाक छान चुका प्रकृति प्रेमी सैलानी लगभग सन 1846 में इस क्षेत्र में पहुंचा तो उसने गढ़वाल के उत्तुंग पर्वत शिखरों को सबसे खूबसूरत पाया। उसने बताया है कि तक यहां के हिमनद मीलों दूर तक फैले हुए थे और मनुश्य के वहां तक फटकने का दूर-दूर तक कोई निषान नहीं था।
उस सैलानी ने इस अपार हिमराशि के अनन्त काल तक अखंड रहने की भविश्यवाणी की थी। दुर्भाग्य यह है कि उसकी यात्रा के पौने दो सौ साल बाद ही यह हिमनद सिकुड़ कर आधे रह गए और अब इनके अस्तित्व के साथ ही साथ मानव जाति के सिर पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन हिमनदों के पिघलते ही गंगा और यमुना दोनों ही नदियां सूख जाएंगी जिससे मनुश्य जाति का अस्तत्व ही खतरे में पड़ जाएगा। याद रहे कि सरस्वती नदी सूखने से ही सिंधु घाटी की समृद्ध सभ्यता नश्ट हुई थी। यह बात दीगर कि हमारी सिंघु घाटी के पार बसे निवासियों को आज भी दुनिया हिंदु के रूप में ही जानती है जो सिंघु का ही अपभ्रंश है। मैदान में सैकड़ों किलोमीटर तक जो सदानीरा गंगा मनुष्यों के पाप धोने से लेकर उनका पेट भरने के काम आती है उसमें पानी की धार बरकरार रखने के लिए उत्तराखंड के 968 छोटे बड़े हिमनदों को पिघल कर बूंद-बूंद पानी टपकाना पड़ता है। यह ग्लेषियर करीब 2850 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। इसके अलावा भी सैकड़ों पहाड़ी सोतों, नालों और झीलों का पानी मिलकर गंगा को उसका पावन स्वरूप प्रदान करते हैं।
गंगा में प्रदूशण खत्म करके उसके अस्तित्व को बचाने के लिए मोदी सरकार ने नमाममि गंगे परियोजना तो चला रखी है मगर उत्तराखंड हाईकोर्ट की ऐतिहासिक कोशिश को वह नाकाम करने में जुटी हुई है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गंगा को मानव का दर्जा देकर उसे भी मानवाधिकारों से लैस और मानवों को उपलब्ध सारे कानूनों का हकदार घोशित किया हुआ है। इसके बाद गंगा से किसी भी प्रकार की मनमानी संज्ञेय अपराध हो जाता। उसी से घबरा कर भारतीय संस्कृति की झंडबरदार भाजपा सरकार सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के आदेष को पलटवाने के लिए पहुंची हुई है। इससे साफ है कि देष के नागरिकों द्वारा निर्वाचित सरकार भी उन नागरिकों के अस्तित्व की रक्षा के बजाए प्रकृति के मनमाने दोहन को तवज्जो दे रही हैं क्योंकि उसमें स्याह-सफेद की खासी गुंजाइष रहती है।
हिमनदों के छीजने और जंगलों के कटने से पिछले पचास साल में पानी बरसाने वाले बादलों का घनत्व भी छीज रहा है। इसी वजह से माॅनसून में भी खूब उतार-चढ़ाव होने लगा है और बारिष की मात्रा घटने लगी है। बादलों के कमजोर पड़ने से ही उत्तराखंड में तो दो-तिहाई से भी अधिक क्षेत्र में फकत जंगल होने के बावजूद बादल फटने की आपदा बढ़ती जा रही है। ऐसे विकट हालात के बावजूद राज्य और केंद्र सरकार द्वारा जलवायु परिवर्तन से उत्तराखंड जैसे महत्वपूर्ण राज्य को बचाने के ठोस उपाय न करना अंततः राज्य के बाशिंदों पर ही भारी पड़ेगा।