श्रीनगर-गढ़वाल में बीच बज़ार खड़े हो कर किसी भी व्यस्त बाज़ार में होने के चलते मैं कुछ भी नहीं सुन पाती, बस बाजार की चहल-पहल और गाड़ियों का शोर। इस सब के बीच कुछ दूरी से शोर से अलग कानों में ढोल का संगीत पड़ता है। 35 वर्षीय सोहन लाल संगीत की मदहोशी में है। हो भी क्यों न, वो इस विलुप्त होने की कगार पर खड़ी कला के अाखिरी बचे 50 वादकों में से हैं। मैं उन्हें लय और संगीत की दुनिया में खोए हुए देख सकती हूँ। वे उत्सुक छात्रों से घिरे हुए हैं जो उनके ढोल की ज़बरदस्त आवाज में खोये रहते हैं।
सर्दिंयों की दोपहर में युनिर्वसिटी के लान में सोहन वहां बैठे सभी छात्रों को अपनी कला से परिचित करा रहे थे। जब समय की हवा चलती है तो सिर्फ यही है जो बचा रह जाता है । यह एक ऐसी कला है जो एक युग से दूसरे युग में आगे बढ़ते जाती है। लेकिन उनके अपने बच्चों ने निराशा में इस कला का दामन छोड़ दिया है। उन्होंने नौकरी और बेहतर ज़िंदगी के सपने के लिये दशकों पुराने इस ढोल को छोड़ दिया है।
दिल धड़काने वाले आधे घंटे के जबरदस्त धुन के बाद सोहन की सांस फूल जाती है और वह थोड़ा आराम करने के लिए पीपल के पेड़ के नीचे बैठने जाते हैं। ढोल और उसकी स्टिक ढोल के किनारे साथ में रखे हुए है। मैं अपनी कलम और कागज उठाती हूँ जो मेरे हथियार हैं। वो समझ गए और उन्होंने कहा कि हम सब अनाड़ी, खफा, अस्थिर और अव्यवस्थित हैं लेकिन समर्पण और अभ्यास से मैंने कुछ चीजें सीखी हैं। वो उन ढोल बजाने वालों में से एक हैं जिन्होंनें इस कला को जिंदा रखा है। ये अलग बात है कि गढ़वाल के हर गांव में एक ढोलकिये का परिवार रहता है, जिनमें से अधिकतर लोगों ने हार मान कर इस पेशे को छोड़ दिया कयोंकि ना तो इस पेशे में ज्यादा आमदनी हैं ना ही इज्ज़त।
इस दौरान वो अधीर हो उठे और फिर उन बच्चों के पास वापस जाते हैं अपने ढोल को गले में लटकाएं हुए और ड्रमस्टिक हाथ में लिए हुए। दो तेज स्वर, घाटी पर ध्वनि प्रतिध्वनि का माहौल बना देती है और एक साफ दोहरी आवाज जैसे कि कोई बेचैन होकर दरवाजा खटखटा रहा हो उनके धुन और ताल को पूरा करती है।
कुछ समय से डिपार्टमेंट आफ फोल्क परर्फामिंग आर्ट एंड कल्चर, श्रीनगर गढ़वाल युनिवर्सिटी ने कोशिश की है कि इस कला का प्रचार करे।युनिवर्सिटी की कोशिश है कि गढ़वाल की समृद्ध परंपरा से संबंध रखने वाले कोर्स जैसे कि थियेटर, फोल्क म्यूजिक और फोल्क फार्म आदि छात्रों को सीखने को मिले और उन्हें सोहन लाल जैसे लोग सिखाएं जो इन क्षेत्रों में उस्ताद हैं। प्रो. डी.आर पुरोहित पिछले दो दशक से लगातार इस कला को लोगों के सामने उजागर कर रहें। वो अब ढोल और ढोल बजाने वालों का संरक्षण कर रहें हैं।वो बताते हैं कि ” हम ईमानदारी और अपनी पूरी जान लगाकर ये प्रयास कर रहें हैं कि इस कला को आने वाली जेनरेशन तक पहुचांए। हम अपनें छात्रों को ट्रेनिंग दिलवाते हैं वो भी पारंपरिक फोल्क आर्ट फार्म के गुरुओं से जिन्हें इसके बदलें में अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका तो मिलता ही है, साथ में उन्हें आर्थिक मदद भी मिल जाती है एक गेस्ट फैकल्टी की तरह काम करने पर।”
लेकिन क्या इतना काफी है? कुछ साल पहले उत्तराखण्ड टूरिज्म काउंसिल, मसूरी की एक मीटिंग में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस परंपरागत ढोल वादन प्रक्रिया को निरंतर बनाएं रखने के लिए पाँच करोड़ रुपये की घोषणा की थी। यह सोहन लाल जैसे लोक कलाकारों के लिए स्वर्ग से कम नहीं है, यह एक तरह से उस उपेक्षा का भुगतान है जो उन्होंने इतने वर्षों तक झेली है। अभी भी एक आशा की किरण है कि उत्तराखण्ड के पहाड़ों में एक बार फिर ढोल की आवाज सुनाई देगी। लेकिन सही मायनों में ढोल और ऐसी ही कई अन्य परंपराऐं तब ही सही मायनों में बच सकेंगी जब सरकार अपनी घोषणाओं को अमली जामा पहना कर उनसे होने वाले फायदे को सीधे सोहनलाल जैसै उस्तादों तक पहुंचा सके।