पलायन एक चिंतन: भराड्सर ताल यात्रा जारी….

दिनांक-11-10-2017

जंगल की पहली बेहद सर्द और खामोश इस रात में स्लीपिंग बैग में खुद को एडजस्टमेंट करना थोड़ा मुश्किल लगा लेकिन थकान से चूर शरीर को मीठी नींद की तलब ने आखिर अपने आगोश में सुला ही दिया।

बगल के टेंट में काबिज सहयात्री मुकेश बहुगुणा, अरविंद धस्माना, दलबीर रावत की आपसी बातचीत के शौर से सुबह जल्दी नींद टूटी। बदन का सार दर्द लंबी नींद से गायब हो चुका था। बाहर निकल कर देखा तो पाला जमने से बर्फ की एक पतली चादर टैंट सहित पूरे जंगल की जमीन पर फ़ैल रखी थी।सुबह की काली चाय के मीठे घूट के बाद टायलेट पेपर लेकर दायें हाथ की ढ़लान पर एक पेड़ की आड़ में मैं निर्वित हो लिया।

वापस लौट फटाफट सामान को समेट खिचड़ी का नाश्ता कर तैयार हुऐ तो ठाकुर साहब का फरमान आया की ऊपर देववासा बुग्याल में सिर्फ घास के मैदान होने की वजह से आज चार में से दो खच्चरों पर यहाँ से रात का भोजन पकाने के लिये सूखी लकड़ी जायेगी। अतः सभी साथी अपना-अपना स्लीपिंग बैग स्वयं ले जायेंगे। टीम लीडर के प्रस्ताव का अनुसरण करते हुऐ स्लीपिंग बैग थोड़ा सुविधाजनक बनाते हुऐ उसे दोनों कंधों पर आरामदायक स्थिति में रख सामने खड़े पहाड़ पर हम सब ने चढाई शुरू कर दी। चलने से पहले घर से साथ लाये भूने हुऐ चनों की एक खेप और खट्टी-मीठी टाफीयों को जेबों में ठूंस कर मैं निकल पड़ा।

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चलते ही खड़ी चढ़ाई ने दम फुला दिया इसलिए चाल को धीमा और सांसों को संयमित करने के लिये मुंह में एक चटपटी टाफी डाल दी जिससे हम मुंह से कम सांस ले सके और चलते हुऐ हांफे नहीं। किसी तरह ऊपर दिख रही चोटी पर पंहुचो तो फिर दूसरी चढ़ाई नजर आ जाती फिर थोड़ा रूकते,सुस्ताते और इसी परिवेश के स्थानीय गीतों के दो मीठे बोल,

“रूपिण-सुपिण नदी, बौहदी आपड़े धारे
“घुमी आंऊदी डांडी कांठियों, बौहदी आपड़े धारे”

..को ऊंचे स्वर में गाते हुऐ फिर आगे बढ़ जाते। जेबों में ठूसे चनों की जुगाली मुंह जरूर सूखा देती लेकिन ऊर्जा की प्रयाप्त आपूर्ति के साथ भूख का एहसास नहीं होने देती।

चलते-चलते आखिर हम ट्रीलाइन की सीमा पार कर काफ़ी ऊंचाई के ढ़ालदार बुग्यालों की छोटी-छोटी पहाड़ीयों की धार पर ऊंची-नीची खूबसूरत पत्थरीली पगडंडियों पर चलने लगे। हमारी दांयी तरफ हिमालय की तलहटी पर हमारे सफर को बंया करता सुपिण नदी के किनारे तक का लिवाड़ी, राला, कासला, रैक्चा गाँव तक का पिछे छूट चुक खूबसूरत रास्ता था तो हमारी बांयी तरफ रूपिण नदी के तट पर उत्तराखंड और हिमांचल सिमाओं पर बसे भीतरी, मसरी, डोडरा-कंवार के गांवों की घाटी और उसके ऊपर चांगशील बुग्याल का विहंग्म दृश्य हिमालय दिग्दर्शन के उचित प्लेटफार्म का एहसास करा रहा था। हमारे साथ-साथ स्थानीय ग्रामीणों की भेड़-बकरीयां, घोड़े-खच्चर भी इस मखमली घास में आये-बगाये चरते हुऐ नजर आ जाते। छोटे-छोटे पानी के अधभरे और सूखे ताल काफी समय से यहां बरसात ना होने का संकेत दे रहे थे।

तकरीबन 8 बजे सुबह शूरू हुऐ इस बेहद शांत और धीमे सफर में लगभग 10 बजे तक हम देववासा पंहुच गये। जहाँ पहले से ही कुछ सैलानीयों ने यहाँ अपना तंबू गाड़े हुऐ थे। जब हमने पड़ताल की तो पता चला ये वुडस्टाक स्कूल मंसूरी के छात्र-छात्राओं का छोटा से ग्रुप है जो पिछली रात को ही अपने विदेशी अध्यापकों के साथ भराड़सर ताल की यात्रा में दूसरी तरफ रूपीण नदी घाटी से यहाँ पंहुचे हैं। जिनमें से कुछ भराड़सर ताल के लिये सुबह ही निकल चुके थे। इनके कुछ अन्य साथी अलग-अलग ग्रुप बना कर सांकरी से हरकीदून और केदारकांठा की तरफ भी गये हैं।

हमारे स्थानीय साथी ने इनके ग्रुप के स्थानीय गाइड और पोटरों से परिचित थे तो चाय-पानी का तत्काल प्रबंधन हो गया। आज चलने के लिहाज से हमारे ग्रुप की महिला सदस्य तनु बेहतरीन प्रदर्शन के साथ स्थानीय साथियों और रतन असवाल,अरविंद धस्माना, मनमोहन असवाल,सौरभ असवाल, गणेश काला के समकक्ष पहले पायदान पर रह। मध्यम चाल के मुकेश बहुगुणा, दलबीर रावत, नेत्रपाल यादव, अजय कुकरेती आज थोड़ा धीमी चाल से पिछे रहे। मैं आज सबसे अलग और अकेला कुछ अपनी ही सोच में डूबा हुआ संयमित चाल से मध्यस्थता बनाये चलता रहा।

थोड़ा आराम के उपरांत आगे के कठिन रास्ते बाबत तनु को यहीं रूकने हिदायत देते हुऐ अपना सारा सामान देववासा में छोड़ सिर्फ रैनकोट और कैमरा लेकर हम सभी साथी फटाफट भराड़सर के लिये चल पड़े। आगे कितना चलना है इसका सटीक अंदाजा किसी को भी नहीं था। हमारे स्थानीय साथी जिसे एक किलोमीटर का रास्ता बताते वह असल में तीन किलोमीटर निकलता था। इसलिए सब परवाह छोड़ हम तेजी से आगे बढ़ने लगे।

लगभग एक किलोमीटर की विकट खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद मेरी सांस फूलने लगी मेरी हालत देख ठाकुर साहब ने सौरभ से पूछा कि क्या वो बैग से आक्सीजन सिलेंडर लाया है जो हमनें इमरजेन्सी सेवा के लिये रखा था तो सौरभ ने असहमति में सिर हिला दिया। मैने मन ही मन वापस लौटने का फैसला करने लगा फिर भी मैं कुछ दूर तक और चलता रहा। अंततः मैंने वापस लौटने का फैसला करते हुऐ लौट जाना ही ठीक समझा। रास्ते में अजय कुकरेती और मुकेश बहुगुणा को जेब में रखा बिस्कुट का पैकेट देते हुऐ मैं तेजी से वापस बेस कैंप देववास में लौट आया।

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देववासा में नेत्रपाल यादव और तनु जोशी वुडस्टाक स्कूल के किचन टैंट में उनके स्थानीय किचन स्टाफ के साथ बैठकर अपने टैंट लगने का इंतजार कर रहे थे। मेरे आने पर उन्होंने मेरे लौटने का कारण पूछा तो मैंने अपनी वस्तु स्थिति से उन्हें अवगत कराया। मेरे फैसले का समर्थन करते हुऐ नेत्रपाल यादव ने मुझे इशारे से भराड़सर की चोटी दिखाई जहाँ घने बादलों को डेरा था। उन्होंने हिमालय पर अपनी समझ और अनुभवों को साझा करते हुऐ कहा की वहां जाने के लिये अब मौसम अनुकूल नहीं है इसलिए मैंने वापस लौट कर समझदारी का काम किया है।

खैर वुडस्टाक स्कूल के इस कैंप के किचन में हमें अदरक और काली मिर्च की बेहद शानदारी दूध वाली चाय नसीब हुई और थोड़ी देर के बाद बेहतरीन मटर-पुलाव भी परोसा गया। सम्मानजनक इस मेहमान नवाजी की समय सीमा और सामर्थ्य के अनरूप हम यथासमय अपने टैंटों में शिफ्ट हो गये। आज हमारे टैंट थोड़ा ज्यादा ढ़लान पर लगाये गये थे जो थोड़ा असहज महसूस हो रहे थे। थोड़ा आराम के बाद इस खूबसूरत प्राकृतिक छटा में हम एक दूसरे की फोटो खिंचने में मशगूल हो गये। फिर चूल्हा जला कर शाम के खाने की तैयारी में अपने गाइड सुरेन्द्र, पोटर जुनैल सिंह और खच्चर वाले किर्तम मामटी के साथ गप्पें मारने लगे। जिसमें किर्तम मामटी ने अपनी पैदल यात्रा के विभिन्न पहलुओं को साझा किया जिसमें उसने बताया की वो एक बार हर्षिल से पिछे बकरीयों के साथ चीनी सेना के डेरे तक चला गया था। जहाँ चीनी सैनिकों ने उसे खाना खिलाकर ससम्मान वापस भेज दिया था। तब मुझे लगा की हिमालय घूमने का उसका अनुभव हम सबसे कितना विस्तृत है काश ये सब वो लिख पाता तो दुनिया का महान लेखक बन जाता।

धीरे-धीरे शाम ढ़ली तो रतन भाई और बाकी टीम सदस्य लौटे तो पता चला वे बेहद खराब मौसम और ओलावृष्टी तथा गहरे कोहरे के कारण आगे का रास्ता भटक गये और भराड्सर के बेहद नजदीक होने के बावजूद वापस लौट आये। लेकिन हमारे स्थानीय साथीयों के साथ मनमोहन असवाल और अरविंद धस्माना भराड्सर तक पंहुच गये थे। जिनके वापस लौटने में अभी काफी समय बाकी था। अजय कुकरेती ने बताया की वे सबसे काफी पिछे छूट कर रास्ता भटक गये थे वो तो भला हो कोई अंग्रेज उनको मिल गये जो शायद वुडस्टाक स्कूल के टीचर थे जिन्होंने उन्हें वापस सही रास्ते तक ले आया। उन्होंने अजय कुकरेती को बताया की सुबह 6 बजे तक भराड़सर के लिये निकलने का सबसे बेहतरीन टाइम है तभी आप यथा समय वापस बेस कैंप देववासा तक लौट सकते हो।

थोड़ी देर बाद शौरगुल के साथ हमारे बाक़ी साथी प्रहलाद रावत ,मनमोहन असवाल, अरविंद धस्माना,राजपाल रावत,जयमोहन और रोजी राणा लौट आये जिन्होंने भराड्सर ताल की यात्रा पूरी करी थी वे वहां भराड्सर देवता की पूजा कर वहां से झील का जल और प्रसाद भी लाये थे। हमें अब संतोष था की हमारे साथियों ने तो इस यात्रा को पूरा किया तथा उन्होंने पलायन एक चिंतन के बैनर के साथ वहां के काफी खूबसूरत फोटो भी खिंच लाये थे। उनके हाथों में ब्रह्मकमल और भेड़गद्दा के दुर्लभ फूल भी थे जो इस उच्च हिमालय क्षेत्र का अनमोल उपहार था। इस पूरी यात्रा से यह अहसास हुआ की हिमालय के अपने नियम कानून है यहाँ कोई भी जब मर्जी मुंह उठाकर नहीं जा सकता। हिमालय ही यहाँ आने का मौसम और समय तय करता है और एक निश्चित अवधि के बाद आपको इस प्राकृतिक रूप से प्रतिबंधित क्षेत्र से वापस लौटना होता है। यह हिमालय का अपना कानून है।

आज की रात सभी के लिये दाल-भात बना था। जिसे खाकर हम सब थोड़ी देर आग के पास बैठ गये। ढलानदार टैंट में सभी असहज महसूस करने लगे खासकर नेत्रपाल यादव लेटते ही निचे फिसल जाते तो उनका प्रचलित डायलाग “पूरा नरक कर रखा है” सुनकर मेरे हंसी नहीं रूकती। तनु भी अपने टेंट में काफी असहज थी तो उनका छोटा सा टेंट उखाड़ कर पुनः उपयुक्त और सपाट स्थान पर लगा दिया गया।

आज की गहरी थकान और बेहद सर्द रात के आगोश में कल के सफर की नयी शुरुआत की उत्सुकता को लेकर हम जैसे-तैसे सो गये।