हलद्वानी के अस्पताल से सीधे भाजपा में टपके 91 साल के नारायणदत्त तिवारी को पार्टी में शामिल करने के साथ ही पार्टी उत्तराखंड के सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों का अजायब घर बन गई है। इन मुख्यमंत्रियों में तिवारी के अलावा अस्सी साल की उम्र पार कर चुके भुवनचंद्र खंडूड़ी, पचहत्तर साल की राजनीतिक अछूत सीमा छू रहे भगत सिंह कोष्यारी, आपदा राहत के कथित खलनायक विजय बहुगुणा और भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर कुर्बान हुए रमेश पोखरियाल निशंक भी शामिल हैं। जाहिर है कि इन तमाम टिमटिमाते राजनीतिक दियों को अपने झंडे तले इकट्ठा करके भाजपा 15 फरवरी, 2017 को प्रस्तावित उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में हर कीमत पर जीत दर्ज करने को आतुर है। यदि ऐसा नहीं है तो उम्र की 75वीं दहलीज पार कर चुके अपने दिग्गज नेताओं को राजनीतिक अछूत घोशित कर चुकी भाजपा ने इक्यानबे साल के तिवारी का उनके विवादित पुत्र रोहित शेखर को कमल छाप पर चुनाव लड़ाने की शर्त के साथ पार्टी में इस्तकबाल क्यों किया? ताज्जुब यह है कि राज्य के इन सारे भूतपूर्व माननीयों की मौजूदगी के बावजूद टिकट बांटने की माथापच्ची भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को खुद ही करनी पड़ी है। इन तमाम दिग्गजों को या तो अपनी संतानों को मिले कमल छाप अथवा अपने एकाध चहेते को टिकट मिल जाने मात्र से ही संतोश करना पड़ा है। हद तो तब हुई जब भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट तक को पार्टी उम्मीदवारों के चयन में नहीं पूछा गया। इससे जाहिर है कि सत्ता पाने की अंधी दौड़ में भाजपा ने अवसरवादिता की नई लकीर खींचने के साथ ही राज्य के पार्टी संगठन के अस्तित्व को ही नकार देने की कथित कांग्रेसी संस्कृति भी और परिश्कृत रूप में अपना ली है। राजनीति की चौसर पर भाजपा ने अपनी इस चाल से यह भी जता दिया कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की मात्रा पूरी तरह केंद्रीय नेतृत्व की कृपा पर निर्भर है। साथ ही अमित शाह ने राज्य के करीब साठ लाख मतदाताओं के सामने इन पूर्व मुख्यमंत्रियों की हैसियत की पोल भी खोलकर रख दी। ऐसा करना शायद नरेंद्र मोदी को ही चुनाव प्रचार का नायक स्थापित करने और चुनाव नतीजे आने पर महाराश्ट्र, गुजरात और हरियाणा की तरह अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाने के लिए अमित की मजबूरी थी।