अमित शाह की सक्रियता भाजपा के लिए प्ररेणा बन रही है, लेकिन विपक्ष के लिए यह परेशानी का सबब है। शाह पार्टी संगठन को मजबूत बनाने के लिए सभी प्रदेशों में प्रवास कर रहे हैं। उनकी यह यात्रा विरोधियों की धड़कनें बढ़ा देती हैं। वह अपने आंतरिक हलचल के लिए भी अमित शाह को दोषी बता रहे हैं। गुजरात में कांग्रेस के छह विधायक भाजपा में शामिल हो गये। इसका आरोप भी शाह पर लगाया गया। वह मजबूत बनाने, संगठन और सरकार में बेहतर तालमेल सुनिश्चित कराने के उद्देश्य से लखनऊ आये थे। यह संयोग था कि इसी समय सपा के दो और बसपा के एक विधान परिषद सदस्य ने इस्तीफा दे दिया। इसे भी अमित शाह की यात्रा से जोड़ा गया। वास्तविकता इसके विपरित थी। अमित शाह का उद्देश्य केवल भाजपा को मजबूत बनाना है। उनके प्रयास इसी दिशा में चल रहे हैं। इसमें भाजपा का जनाधार बढ़ाने का वह प्रयास कर रहे हैं। अन्य पार्टियों के विधायकों को भाजपा में शामिल कराने का विचार इसमें शामिल नहीं है। यह तो विपक्षी पार्टियों की अपनी कमजोरी का परिणाम है। कांग्रेस, सपा, बसपा, राजद जैसी पार्टियों के हाई कमान को इसपर आत्मचिंतन करना चाहिए। अमित शाह को दोष देना आसान है लेकिन अपने कार्यों का मूल्यांकन करना कठिन है। गुजरात में छह विधायकों के भाजपा में जाने पर कांग्रेस की नींद टूटी। यहां राज्यसभा चुनाव होने हैं। इसके बाद वह अपने अन्य विधायकों को प्रदेश से बाहर ले गयी। इसका भी विपरित असर हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री को कहने का अवसर मिला। यहां लोग बाढ़ से बेहाल हैं। कांग्रेस के विधायक रिसार्ट में मौज मस्ती कर रहे हैं। उधर दिल्ली में कांग्रेस के दिग्गज नेता चुनाव आयोग में शिकायत करने पहुंच गये। गुजरात में छह महीने पहले ही यह दिखाई देने लगा था कि शंकर सिंह बघेला कांग्रेस का दामन छोड़ देंगे। बघेला गुजरात के प्रभावशाली नेता माने जाते हैं। यही कारण था कि भाजपा से अलग होने के बाद कांग्रेस हाईकमान ने उनका स्वागत किया था। उन्हें केन्द्र में मंत्री बनाया था। तब भाजपा ने नहीं कहा था कि कांग्रेस ने दबाव बनाकर हमारे एक बड़े नेता को अपने पाले में खींच लिया। यह बघेला का अपना फैसला था। कांग्रेस से अलग होने का फैसला भी उनका अपना था। छह महीने पहले इसकी जानकारी मिलने के बाद भी कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया।
बघेला के प्रभाव वाले विधायक कांग्रेस छोड़ रहे हैं। इसपर कांग्रेस को ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह है हि कांग्रेस छोड़ने वालों का हाईकमान से भी मोह भंग हो रहा है। उन्हें पार्टी में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं लग रहा है। इसलिए भी उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का निर्णय लिया। फिलहाल यही संदेश गया कि कांग्रेस ने बाढ़ से परेशान लोगों की अपेक्षा अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव को ज्यादा महत्व दिया। यह अपने विधायकों के प्रति कांग्रेस के अविश्वास को भी उजागर करता है। यही स्थिति बसपा में रही है। इसमें तो भगदड़ पहले से है। प्रायः दिग्गज समय-समय पर बसपा छोड़ते रहे हैं। लम्बे समय तक बसपा में मायावती के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन का स्थान रहा है। उसके पहले आरके चौधरी की भी महत्वपूर्ण हैसियत थी। ये सभी मायावती का साथ छोड़ गये। सर्वजन फार्मूले में सतीश चंद्र मिश्र के बाद बृजेश पाठक का स्थान था। मायावती के रुख ने ही ऐसा माहौल उत्पन्न किया था। इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं था। आज भी बसपा में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। मायावती ने अपने भाई को उपाध्यक्ष बनाया है। इससे भी कई नेता निराश हैं। सपा का आंतरिक या पारिवारिक विवाद समाप्त होने का नाम नहीं ले रहा है। इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसमें भी अमित शाह का कोई दोष नहीं। बिहार में महागठबंधन चलाने का नीतीश ने अंतिम सीमा तक प्रयास किया। जांच एजेंसियों को हजारों करोड़ की अवैध संपत्ति के प्रमाण मिलने लगे। मीसा भारती व उनके पति के फार्म हाउस तक पर जांच एजेंसी का शिकंजा है। इसी के बाद कांग्रेस को सावधान हो जाना चाहिए था। उसे समझना चाहिए था कि इस स्थिति में नीतीश ज्यादा दूर तक साथ नहीं चलेंगे। कांग्रेस हाईकमान ने अदूरदर्शिता दिखाई। उसने समाधान का कोई प्रयास नहीं किया। नीतीश अपनी छवि बचाने के लिए परेशान थे। मतलब यह अलगाव महागठबंधन की आंतरिक व घोटालों का परिणाम था। इसमें अमित शाह की कोई भूमिका नहीं थी। इसके बाद नीतीश के नेतृत्व में राजग की सरकार बनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। इसी में बिहार का हित था। अमित शाह ने बिहार के लोगों के कल्याण को ध्यान में रखकर फैसला किया।
गोवा, मणिपुर में भी चुनाव परिणाम आने के बाद कांग्रेस हाईकमान उदासीन बना रहा। जब कोई भी दल कांग्रेस को समर्थन देने को तैयार नहीं था, तब इसके लिए कोई संभावना ही नहीं थी। क्षेत्रीय दलों व निर्दलियों ने भाजपा को समर्थन दिया। बहुमत उसके पक्ष में हो गया। संविधान के अनुसार यही सरकार बननी थी।
विपक्ष के हाईकमान अमित शाह से अपनी तुलना करें, तब फर्क समझ आयेगा। अमित शाह अपने पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत बनाने का प्रयास कर रहे हैं। विपक्ष के नेता केवल हवा में तैयारी कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि मोदी, गऊरक्षा, असहिष्णुता आदि पर भाषण देकर उनका बेड़ा पार हो जायेगा। सच यह है कि इसका उल्टा असर हो रहा है।