धरती सिकुड़ने की दर 18 एमएम प्रतिवर्ष, हलचल से वंचित हो रही ऊर्जा

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देहरादून। नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलॉजी नई दिल्ली के अध्ययन में सामने आया कि देहरादून से टनकपुर के बीच करीब 250 किमी क्षेत्रफल की जमीन लगातार सिकुड़ती जा रही है। धरती के सिकुड़ने की यह दर सालाना 18 मिमी. प्रतिवर्ष है। मंगलवार को सेंटर के निदेशक डॉ. विनीत गहलोत ने इस अध्ययन को देहरादून में आयोजित ‘डिजास्टर रेसीलेंट इंफ्रांस्ट्रक्चर इन दि हिमालयास: अपॉर्च्युनिटीज एंड चैलेंजेज’ वर्कशॉप में किया।

डॉ. गहलोत के मुताबिक, वर्ष 2012 से 2015 के बीच देहरादून (मोहंड) से टनकपुर के बीच करीब 30 जीपीएस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) लगाए गए। इसके अध्ययन पर पता चला कि यह पूरा भू-भाग 18 मिमी की दर से आपस में सिकुड़ रहा है। जबकि पूर्वी क्षेत्र में यह दर महज 14 मिमी प्रति वर्ष पाई गई। इस सिकुड़न से धरती के भीतर ऊर्जा का भंडार बन रहा है, जो कभी भी इस पूरे क्षेत्र में सात-आठ रियेक्टर स्केल के भूकंप के रूप में सामने आ सकती है। क्योंकि इस पूरे क्षेत्र में पिछले 500 सालों में कोई शक्ति शाली भूकंप नहीं आया है। एक समय ऐसा आएगा जब धरती की सिकुड़न अंतिम स्तर पर होगी और कहीं पर भी भूकंप के रूप में ऊर्जा बाहर निकल आएगी। नेपाल में धरती के सिकुड़ने की दर इससे कुछ अधिक 21 मिलीमीटर प्रति वर्ष पाई गई। यही वजह है कि वर्ष 1934 में बेहद शक्तिशाली आठ रिक्टर स्केल का नेपाल-बिहार भूकंप आने के बाद वर्ष 2015 में भी 7.8 रिक्टर स्केल का बड़ा भूकंप आ चुका है। हालांकि यह कह पाना मुश्किल है कि धरती के सिकुड़ने का अंतिम समय कब होगा, जब भूकंप की स्थिति पैदा होगी। इतना जरूर है कि जीपीएस व अन्य अध्ययनी के बदलाव व हर भूकंप का अध्ययन किया जा रहा है।
तीन बड़े लॉकिंग जोन पता चले
नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलॉजी के निदेशक डॉ. विनीत गहलोत के अनुसार वैसे से 250 किमी का पूरा हिस्सा भूकंपीय ऊर्जा का लॉकिंग जोन बन गया है, लेकिन अब तक के अध्ययन में सबसे अधिक लॉकिंग जोन चंपावत, टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र में धरासू बैंड व आगरा खाल में पाए गए हैं।