देहरादून। उत्तराखण्ड से बढ़ते पलायन प्रदेश के साथ-साथ देश के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। जबकि इसे रोकने के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों सरकार दावें करती है लेकिन पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा, बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में वर्तमान सरकार ने पलायन रोकने के लिए पलायन आयोग बनाने का ऐलान किया है।
यूपी से अलग होकर उत्तराखण्ड को राज्य के निर्माण के लिए 17 साल हो गए। यहां की जनता राज्य बनने का जश्न तो मना रही है लेकिन आज भी उनको चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है। जबकि राज्य की सभी नौ सरकारें पलायन को ख़त्म करने की बातें करती रही और पहाड़ के गांव खाली होते रहे। ऐसे में विवश होकर प्रदेश के गढ़वाल-कुमाऊं के युवा नौकरी के लिए दिल्ली-मुंबई-चंडीगढ़ जैसे शहरों का रुख कर रहे हैं।
राज्य में सत्ता से बेदखल विपक्ष में बैठी कांग्रेस सरकार सात महीने के भाजपा सरकार के कार्यकाल को विफल बता रही है। उनका कहना है पहाड़ की मूल समस्या को छूने में त्रिवेन्द्र सरकार पूरी तरह से असहाय दिख रही है। ऐसे में इस सरकार से ज्यादा उम्मीद नही किया जा सकता है। वहीं, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह सूबे की त्रिवेंद्र सरकार पर लगातार पलायन व रोजगार जैसे संवेदनशील मुद्दों को लेकर वार कर रहे हैं।
वर्तमान प्रदेश के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पहाड़ पर रोकने के लिए पलायन आयोग बनाने का ऐलान किया है लेकिन पहाड़ की नियति बन चुके पलायन को रोकने में आयोग कितना कारगर साबित होगा यह चुनौती से कम नहीं है। वर्ष 1991 से लेकर 2011 तक के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सोलह सालों में उत्तराखंड में 32 लाख लोगों ने पलायन किया है।
उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ में जनसंख्या वृद्धि दर लगातार घटती जा रही है। सीमावर्ती जिलों से लोगों का पलायन देश की सुरक्षा लिहाज से भी खतरनाक साबित हो सकता है और इसे लेकर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी चिंता जता चुके हैं। सरकारी आंकड़ों की माने तो पहाड़ में दो लाख अस्सी हजार छह सौ पंद्रह घरों में कोई रहने वाला नहीं है।
राज्य सरकार ने पलायन से सर्वाधिक प्रभावित जिलों में से एक पौड़ी में पलायन आयोग का गठन कर सही दिशा में पहल तो की है लेकिन क्या यह आयोग राज्य के सामने खड़ी सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर पाएगा? राज्य ही नहीं मैदानों में रहने वाले लाखों उत्तराखंडी प्रवासियों को भी इस सवाल के जवाब का इंतजार रहेगा।
जनगणना 2011 के आंकड़े बताते हैं कि पहाड़ में राज्य बनने के बाद करीब पैंतीस फीसदी आबादी ने अपने मूल स्थानों से पलायन किया है। 2001 से 2011 के बीच दस सालों में उत्तराखंड की आबादी 19.17 फीसदी बढ़ी और इससे भी ज़्यादा बढ़ा पहाड़-मैदान का अंतर। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में आबादी में वृद्धि 11.34 फीसदी रही जबकि मैदानी क्षेत्रों में यह करीब चार गुना अधिक 41.86 फीसदी रही। पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में तो जनसंख्या कम ही हो गई है। वर्ष 2001 में पौड़ी की कुल जनसंख्या थी 3,66,017, जो 2011 में 3,60,442 हो गई, यानि की 10 साल में आबादी 5,575 घट गई। अल्मोड़ा में 2001 में 3,36,719 लोग रहते थे, जो 2011 में 3,31,425 ही रह गए। इस तरह आबादी 5,294 कमी आई।