प्रदेश के सरकारी तंत्र का नया फैशन आ गया है, यहां अब हर मामले की जांच एसआईटी से कराने का फैशन शुरु हो गया है। भूमि घोटाले से शुरु हुआ ये फैशन, गेहू के घोटाले तक पहुंच गया है, प्रदेश में भ्रष्टचार से जुड़ा मामला हो या फिर खनन से या फिर किसी अन्य मामले से हर मामले में एसआईटी गठित कर जांच कराये जाने का उत्तराखंड में मानो फैशन सा बन गया हो। अब टीडीसी के चर्चित बीज घोटाले की बात करे, तो इस पर पूर्व में मुख्य सचिव के अध्यक्षता में पहले जांच हो चुकी है।
इतना ही नहीं जांच के आधार पर कई अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा तक पंजीकृत हो चुका है। लेकिन एक बार फिर निष्पक्ष जांच के नाम पर टीडीसी से जुड़े घोटाले को एसआईटी के हवाले कर दिया गया है। यहां सवाल यह भी है कि हर जांच के लिए एसआईटी गठित किया जाना कहा तक तर्क संगत है। क्योंकि ऐसा करने से जहां कई जांच एजेन्सियों की साख पर सवालिया निशान लग रहे है। वही एसआईटी पूरी जांच निष्पक्ष तरीके से करेंगी। इसकी क्या गारंटी है। क्योंकि जिस पुलिस के नेतृत्व में एसआईटी गठित की जा रही है। उससे पहले यह देखा जाना जरूरी होगा कि उसकी अपनी सामान्य छवि क्या है। क्योंकि जिस पुलिस के नेतृत्व में एसआईटी गठित की जा रही है। उसकी अपनी छवि किसी से छुपी नहीं है। पुलिस को जांच सौंपने का मतलब ठीक उसी तरह होगा, जिस प्रकार बिल्ली से दूध की रखवाली के लिए कहा जाए।
प्रदेश में एसआईटी संभवत सबसे पहले पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान जमीन से जुड़े प्रकरणों की जांच के लिए गठित हुई। तब एसआईटी का गठन संभवत इसलिए भी किया गया, क्योंकि इस तरह के मामलों में पुलिस खासकर कि थाना चौकियों की भूमिका संदिग्ध होती जा रही थी। ऐसे मामलों में पुलिस का दखल इस कदर बढ़ गया था। उच्च स्तर से आदेश तक करने पड़े कि पुलिस सिविल मामलों अनावश्यक दखल न दे। लेकिन बाद में जमीन संबंधी शिकायती मामलों की जांच के लिए एसआईटी गठित कर दी गई। इसके बाद तो मानो प्रदेश में एसआईटी के गठन का सिलसिला ही शुरू हो गया। जमीन संबंधी मामलों के बाद अवैध खनन से जुड़े मामलों की जांच के लिए भी एसआईटी बनाई गयी। इसके साथ ही एसआईटी के गठन पर सवाल भी उठने शुरू हो गए। यह माना जाने लगा कि एसआईटी का गठन राजनीति से प्रेरित है। अब हाल यह है कि तमाम सवालों के साथ एसआईटी हर ‘मर्जÓ की दवा बन चुकी है। आज राज्य में स्थिति यह है कोई भी बड़ा मामला सामने आता है, तो पहले किसी बड़ी एजेंसी से जांच कराने की मांग की जाती है लेकिन बाद में वही जांच एसआईटी के हवाले कर दी जाती है। एनएच घोटाला इसका ज्वलंत उदाहरण है।
इस हाई प्रोफाइल घोटाले की जांच सीबीआई से कराने की घोषणा खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने की थी। मगर आज हकीकत यह है कि इसकी जांच एसआईटी कर रही है। कल्पना कीजिए जिस एनएच घोटाले के तार कई बड़े सफेदपोशों और अफसरों तक से जुड़े हैं, उसमें अदनी सी एक एसआईटी असल गुनाहगारों तक पहुंच भी पाएगी। एक अन्य मामले में फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर शिक्षा महकमे में नौकरी पाने वाले शिक्षकों की जांच भी सरकार ने एसआईटी को ही सौंपी है। जबकि सच यह है कि यह जांच खुद विभाग ज्यादा बेहतर तरीके से कर सकता था, या फिर किसी अन्य विशेषज्ञ एजेंसी सीआईडी आदि को ये जांच सौंपी जा सकती थी। चूंकि जांच बड़े पैमाने पर होनी है लिहाजा तय है कि पुलिस का दखल भी उतना ही ज्यादा बढ़ेगा। शिक्षा महकमा इस दखल को कितना स्वीकार कर पाता है, अंत: निष्कर्ष क्या रहता है। यह भी बड़ा सवाल है।
हाल ही में करोड़ों रुपये के छात्रवृत्ति घोटाले की जांच भी अब एसआईटी से कराने की घोषणा की जा चुकी है। कहां तो यह कहा जा रहा था कि इस घोटाले की जांच सीबीआई से करवाई जा सकती है लेकिन अब सरकार साफ मुकर रही है। अहम तथ्य यह है कि एसआईटी का गठन ऐसे वक्त में किया जा रहा है जब पुलिस के पास संसाधनों की भारी कमी है।
शिक्षकों के प्रमाण पत्रों की जांच वाले मामले में खुद तत्कालीन पुलिस महानिदेशक ने एसआईटी जांच से इंकार करते हुए कहा था कि पुलिस के पास जांच के लिए जरूरी संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार की ओर एसआईटी को प्रकरण पर प्रकरण सौंपे जा रहे हैं। यह सीधे सीधे महकमों में पुलिस का अनावश्यक दखल बढ़ाने जैसा तो है। साथ ही यह ‘निष्पक्षता पर भी सवाल है।