कृष्णा चंद्र कुड़ियाल: लुप्त होती उत्तराखंडी कला को बचाने में लगा है ये कला प्रेमी

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यमुना और टोंस घाटी की विलुप्त की और अग्रसर भवन शैली में उत्तरकाशी निवासी 46 साल के कृष्णा चन्द्र कुड़ियाल ने ना सिर्फ नई जान फूंकी है बल्कि इस विधा के कारीगरों के लिए रोज़गार के नए द्वार खोल दिए हैं।

पहले दून स्कूल देहरादून और फिर आईआईटी रुड़की से आर्किटेक्चर में उच्च प्रशिक्षण प्राप्त कर कृष्णा ने तीन साल दिल्ली में काम किया, फिर अपनी मां का सहार बनने के लिए वापस उत्तरकाशी अपनी जन्मभूमि आ गए और यहां के होकर रह गए।

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यहां उनका ध्यान रवाई और जौनसार घाटी की शानदार लकड़ी और पत्थर से बने प्राचीन भवन शैली की ओर गया जोकि विलुप्ती की ओर अग्रसर थे।

टीम न्यूजपोस्ट से बातचीत में कृष्ण ने बताया, “हम जब आईआईटी में पढ़ाई करते थे तो देशभर खासकर राजस्थान की हवेली और दक्षिण के मंदिर के आर्किटेक्चर के बारे में पढ़ते थे,गढ़वाल आर्किटेक्चर का ज्यादा जिक्र नहीं था।रुड़की में मेरे प्रोफेसर शंकर ने मुझे पहाड़ी भवन शैली में काम करने को कहा,और आज मैं वहीं कर रहा हूं।”

17 साल से जो एक हॉबी की तरह कृष्णा ने शुरु किया आज एक एंटरप्राइजिंग मॉडल बन गया है।शुरु में कृष्णा और उनकी टीम ने नागद्वार और महासू से लेकर स्थानीय 30-40 मंदिर को एक फिर पुरानी सुंदरता में ढाला।

कृष्णा ने अपने कारीगरों को जोड़ा जो कि इस विलुप्त होती कला के चलते बिखर गए थे, उन्होंने उनके कला को नए अौज़ारों के साथ नवाज़ा, अब उनकी दूसरी पीढ़ी इस काम में रुचि लेने लगी है, क्योंकि कृष्णा बताते हैं, “जो कभी मंदिरं में रिस्टोरेशन का काम करते थे ,आज वह उत्तरकाशी म्यूजियम,सरकारी बिल्डिंग, रेजार्ट में भी काम कर रहे हैं, आज काम की कोई कमी नहीं है।”

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आज कृष्णा और उनकी टीम केदारनाथ त्रासदी में जर्जर हो चुके भवनों को पहाड़ी शैली में जीर्णोद्धार में लगी है।कृष्णा की एक छोटी सी पहल और लगन ने पहाड़ी प्राचीन भवन शैली को एक नया जीवन और कारीगरों को उनकी उपलब्धता से अधिक काम दिलाने में बहुत बड़ा कदम उठाया है, उनकी सोच को टीम न्यूजपोस्ट सलाम करता है।