86 साल पहले उत्तराखंड के जनमानस ने अगर एक अलग प्रदेश का सपना 1930 में देखना शुरू किया जो अंततः 2000 में पूरा हुआ। इसमें कोई संदेह नहीं की पहाड़ की जनता एक तो उत्तरप्रदेश के हुक्मरानों से अजीज आ चुकी थी। या यों कहें कि पहाड़ की आवाज दो शक्तिशाली राजनीतिज्ञों के बाबजूद लखनऊ तक नहीं पहुच पाई।फलस्वरूप जनता को मजबूर होकर अलग राज्य की इस लड़ाई को आगे ले जाना पड़ा। साठ साल से बंद इस लड़ाई को अंतिम मुकाम पर पहुचाया 1994 के मुजफ्फरनगर कांड ने , जिसके फलस्वरूप लखनऊ से कभी उत्तराखंड या फिर उत्तराँचल होते हए , प्रदेश की यह मांग संसद में पहुँची।
अंततः 1 नवम्बर 2000 को उत्तराँचल नाम से राज्य का नामकरण हुआ, जिसमें वास्तविक उत्तराखंड को अल्पसंख्यक राज्य बना दिया गया और हरिद्वार, उद्धमसिंगनगर , देहरादून जिलों को इसमें शामिल कर दिया गया। आज ये ही जिले उत्तराखंड पर राज कर रहे हैं ,आज वे ही 21 सीटो पर काबिज हैं। बीजेपी – कांग्रेस के चुंगल में फंसे इस आँचल को फिर खंड में तब्दील कर दिया गया। परंतु हद तो तब हो गई जब पहाड़ रूपी इस देवभूमि को नोचने –खसोटने में पहाड़ से देहरादून पहुचे कुछ भूखे –नंगे सियार व गीदड़ भी देहरादून से बहार जाने को तैयार हुए। पहाड़ ने मांगी थी राजधानी गैरसैण परंतु पहुच गई देहरादून। और यही से शुरू होती हैं पहाड़ी राज्य की विडम्बना,जो एक समय अलग राज्य के धुर विरोधी थे बिडम्बना देखिए वही बन गए मुखिया।
निकट भविष्य में शायद राजधानी पहाड़ तक चढ़ भी नहीं पाएगी क्योंकि अब राजनैतिक समीकरण ही कांग्रेस व बीजेपी ने ऐसे कर दिये हैं कि जो भी पार्टी पहाड़ जाने की बात करेगी भूखे मरेगी। अब पहाड़ की आवाज कुंद हो चुकी हैं ,गांव के गांव खाली हो गयें हैं । रही सही कसर चुनाव आयोग ने पूरी कर दी डिलिमिटेशन करके। कहाँ लड़ाई थी जल जंगल और जवानी की परंतु खण्ड और आँचल के पाखंड में ऐसे फंसी की बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हैं। कौन तोड़ेगा इस बंधन को? कब प्रकट होगा पहाड़ का मोदी या कब प्रकट होगा एक रमन, या एक सत्यवादी हरिश्चन्द्र यह तो शायद आगामी विधान सभा चुनाव ही बता पाएगा। आशा तो यही करनी चाहिए ..
पहाड़ की यह यात्रा नित्यानंद से शुरू होकर राजा हरीश चंद तक पहुच गई है ,राजा हरिश्चन्द्र तो परीक्षा में सफल होकर निकले थे लेकिन पहाड़ के हरीश कैसे पहाड़ की परीक्षा में सफल होंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा?
उत्तराखंड अब सोलह साल का हो चुका है , दो साल बाद व्यसक होने की राह देख रहा है, चंद ही दिनों बाद उत्तराखंड में चुनाव होने हैं शायद जनता इस बार कुछ नया करे?
विगत सोलह सालों में दावे तो बहुत किए गए परंतु पहाड़ से बहने वाली नदियों का रुख निरंतर मैदान की ओर ही रहा, क्या वह समय भी आएगा जब मैदानों से निकलने वाली नदियां पहाड़ का रुख करेंगी? शायद हाँ –शायद नहीं।