दीपावली के पश्चात सबसे बड़ा पर्व देवोत्थान एकादशी होता है। प्रबोधिनी एकादशी को देव उठनी एकादशी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। देवोत्थान एकादशी के साथ ही चार माह से भगवान शंकर के हाथों से संसार की सत्ता भगवान विष्णु के हाथों आ जाती है। देवोत्थान एकादशी को देव दीपावली भी कहा जाता है।
ज्योतिषाचार्य पं. प्रदीप जोशी के अनुसार इस बार 31 अक्टूबर को देवउठनी एकादशी है, लेकिन 13 अक्टूबर से देवगुरु बृहस्पति पश्चिामास्त हैं, जो कि देवउठनी एकादशी के सात दिन बाद 7 नवम्बर को पूर्व दिशा में उदित होंगे और आगामी तीन दिन बाल अवस्था में रहने के बाद 10 नवम्बर को बालत्व निवृत्ति होगी। 16 नवम्बर को सूर्य वृश्चिक राशि में प्रवेश करेगा। इन समस्त दोषों की निवृत्ति के पश्चात 19 नवम्बर से शादियों की शुरुआत होगी। वैसे देव उठनी एकादशी को किसी मुहुर्त की जरूरत नहीं होती। देवोत्थान एकादशी स्वंय सर्वार्थ सिद्धि योग होता है। देवोत्थान एकादशी के साथ चार माह से बंद पड़े मंगल कार्यों की भी शुरुआत हो जाएगी।
ज्योतिषाचार्य पं. प्रदीप जोशी के अनुसार इस बार इस साल नवंबर में 19, 22, 23, 24, 28, 29 और 30 नवम्बर को विवाह के विशिष्ट मुहूर्त हैं। दिसम्बर में 3, 4, 10, 11 और 12 दिसम्बर को विवाह मुहूर्त बन रहे हैं। 15 दिसम्बर से 14 जनवरी, 2018 तक मलमास रहेगा। मकर संक्रांति के बाद विवाह मुहूर्त शुरू होते हैं, किंतु इस बार जनवरी में कोई मुहूर्त नहीं है। 22 जनवरी को बसंत पंचमी को देवलग्न होने के कारण विवाह आयोजन कर पाएंगे, लेकिन लग्न शुद्धि के शुभ मुहूर्त फरवरी में ही मिलेंगे। फरवरी में 4, 5, 7, 8, 9, 11, 18 और 19 तथा मार्च में 3 से 8 और 11 से 13 मार्च को शादियों के मुहूर्त हैं।
देवोत्थान एकादशी के दिन तुलसी विवाह का भी शास्त्रों में वर्णन है। इसे तुलसी विवाह एकादशी भी कहा जाता हैै। मान्यतानुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी जी और विष्णु जी का विवाह कराने की प्रथा है। तुलसी विवाह में तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति या शालिग्राम पाषाण का पूर्ण वैदिक रूप से विवाह कराया जाता है। ये त्योहार दिवाली के 11 दिन बाद मनाया जाता है और इस वर्ष तुलसी विवाह का शुभ दिन 31 अक्टूबर को है। मान्यता है कि इस दिन तुलसी शालिग्राम विवाह कराने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन नए चावल, रुई, शकरकंद, सिगाड़ा, बेर, गन्ना, आंवला आदि का दान देना विशेष फलदायी होता है।
एकादशी व्रत के सबंध में जोशी के अनुसार एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए।
कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दूसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यांसियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए।