प्रदूषण की मार से कराह रहे देश को अपने पहाड़ों, नदियों, जंगलों और हिमनदों से पुरसुकून बनाने के बावजूद उत्तराखंड खुद ठंडी उदासी की चादर में लिपटा हुआ है। उत्तराखंड को अलग राज्य बने सोलह साल पूरे हो गए मगर यहां के मूल निवासियों में इसका कोई उत्साह ही नहीं है। अलबत्ता राज्योत्सव का सरकारी तामझाम और प्रभु वर्ग में उत्सव का उल्लास जाहिर है कि ठाठें मार रहा है। फिर भी लड़कर हासिल किए गए अपने ही राज्य में पहाड़ी जनता आज बेरौनक है। पलायन थमने के बजाए इन 16 साल में जहां दुगुनी गति से हो रहा है वहीं प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती विभीषिका पहाड़ियों का जीवन दिन ब दिन अधिक दुरूह बना रही है। उनके भीतर राज्य के किषोर हो जाने का न कोई उल्लास है और न ही अपना भविश्य सुधरने की कोई उम्मीद।
साल 2000 के नवंबर महीने में अलग राज्य बने उत्तरांचल ने पिछले 16 साल में हालांकि आंकड़ों में तो अच्छी-खासी तरक्की की है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा राज्य में कुल 53487 पंजीकृत उद्योगों का है। राज्य गठन के समय उत्तराखंड क्षेत्र में महज 14,163 पंजीकृत उद्यम थे। चालू माली साल के बजट के अनुसार इन उद्योगों में कुल 11221 करोड़ रूपए मूल्य का पूंजी निवेश हो रखा है। सोलह साल पहले कुल निवेशित पूंजी 700.29 करोड़ रूपए ही थी। इतने सारे नए उद्योग लगने के बावजूद ताज्जुब यह है कि राज्य की 60 फीसद जनता अंत्योदय अन्न योजना में गरीबों को मिलने वाले राशन से जीवनयापन को मजबूर है। जबकि इतने सारे उद्योग लगने के बाद तो राज्य में सारे गरीबों-बेरोजगारों को कमाई का हिल्ला आसानी से मिल जाना चाहिए था!
विडंबना यह है कि रोजगार की तलाश में पहाड़ियों के पलायन का आंकड़ा बढ़कर दुगुना हो गया है। पिछले 16 साल में बनी पांच सरकारों के तमाम जुबानी जमा-खर्च के बावजूद न तो पलायन रूका और न ही खांटी पहाड़ियों की जिंदगी आसान और सुरक्षित हुई। रही-सही कसर उनकी आजीविका के एकमात्र साधन खेती का रकबा 70,000 हेक्टेयर घट कर सात लाख हेक्टेयर रह जाने ने पूरी कर दी। जाहिर है कि यह जमीन उन मगरमच्छों के पेट में हजम हो गई जो उसे किसानों से कौड़ियों के मोल खरीद कर सोने के भाव बेच रहे हैं।
गौरतलब है कि उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल यूं तो 53.48 लाख हेक्टेयर है मगर इसमें से मात्र 28.50 प्रतिशत क्षेत्र ही मानवीय गतिविधियों के लिए उपलब्ध है। बाकी 71.05 प्रतिशत भूभाग में जंगल फैले हुए हैं जिनकी जमीन के अतिक्रमण पर कानूनन रोक है। इसीलिए राज्य में जमीन बेशकीमती है। इसी वजह से राज्य की अधिकतर दौलत देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंह नगर जैसे अपेक्षाकृत मैदानी जिलों में सिमटती जा रही है। ज्यादातर कारोबार भी इन्हीं संपन्न जिलों में ठिठक जाने से सरकार को राजस्व की मोटी कमाई यहीं से हो रही है। लिहाजा आबादी की बसाहट और विकास की दौड़ में भी यही जिले अव्वल हैं। बाकी प्रदेष को इनका नाका पूरने के बाद बची-खुची रकम से ही गुजारा करना पड़ रहा है।
औद्योगिकरण की तरह ही उत्तराखंड में बाल विकास योजनाओं की संख्या भी कई गुना बढ़कर 105 हो गई है। इनके तहत सरकारी आंकड़ों के अनुसार 14,947 आंगनबाड़ी और दूरदराज इलाकों में 5120 लघु आंगनबाड़ी चल रही हैं। इसके बावजूद बाल मृत्यु दर बेकाबू है। राज्य में जनाना-मर्दाना स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या भी बढ़कर कुल 35014 हो गई है। फिर भी पहाड़ों में जचगी के दौरान जच्चा का जीवन बचा पाना कठिन चुनौती है।
गंगा और यमुना नदियों को अपने 43.70 प्रतिषत भूभाग में संजो कर उत्तराखंड देश के करोड़ों किसानों के खेतों, कारखानों और घरों की प्यास बुझाता है। औसतन 35 करोड़ आबादी का जीवन इन दोनों नदियों पर निर्भर है। ये जहां से गुजरी इन्होंने किसानों-कारोबारियों और पंडों को मालामाल कर दिया। फिर भी इनसे जुड़ी बेशुमार प्राकृतिक आपदाओं की निरंतर मार झेलने वाले पहाड्यिों का कोई पुरसा हाल नहीं है। आश्चर्य यह है कि पर्यटन और बिजली घरों से कमाई बढ़ाने के बुनियादी ढांचे में अरबों रूपए फूंकने को तैयार केंद्र और राज्य की सरकार इन पीड़ितों की सुरक्षा अथवा आजीविका के भरोसेमंद इंतजाम के प्रति से आंखें मूंदे बैठी हैं।
राजनीति ने राज्य में भ्रश्टाचार की जड़ें और गहरी कर दीं। फर्क सिर्फ इतना है कि उत्तर प्रदेश के राज में मैदानी सरकारी अमला, पहाड़ियों के प्रति हिकारत जता कर अपनी जेबें भरता था। अब उत्तराखंड नामकरण के बाद पहाड़ी ही अपने हिमबंधुओं का गला काट रहे हैं। इस तरह पिछले सोलह साल में बड़ी आशा और विश्वास से हासिल किए गए कुदरती ताजगी से भरपूर इस राज्य में दो उत्तराखंड बन गए हैं।
एक उत्तराखंड वो है जिसमें सरकारी नौकरी, ठेकेदारी, नेतागीरी, पर्यटन, बिजलीघर निर्माण, बेशकीमती जमीन की दलाली, औद्योगिकरण और सेना को सप्लाई से मालामाल करीब बीस फीसद जनता है। दूसरा उत्तराखंड वो है जिसमें दिन-रात कुदरती बाधाओं से जूझते, क्यारीदार खेतों में पसीना बहाते, बोझा ढोते, कारखानों में डबल पारी में सिंगल मजदूरी के लिए खटते, दो जून की रोटी की अनिश्चितता में दुबले और बच्चों को पढ़ा-लिखा कर पहाड़ की बेगारी से आजाद कराने को आतुर मां-बाप और उनके बेबस परिवार हैं। (जारी)