21 सालों से 200 परिवार तलाश रहे पहचान

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विस्थापन का दर्द उनसे बेहतर कौन समझ सकता है जिन्हें अपनी जन्म स्थली और वहां से जुडी यादों को समेट कर दुसरी जगह बसेरा करना पडा हो? मगर विस्थापन के दर्द से बड़ कर इन विस्थापितों के लिए उससे भी बड़ा दर्द ये है कि आज वो अपनी पहचान को मोहताज है। सरकार के एक फरमान ने घर तो उजाड़ दिये मगर जहां बसेरा देना था उसका कोई लेखा जोखा नहीं दिया। लिहाजा अपनी ही जमीन पर अवैध रुप से बसना पडा और पहचान के नाम पर कोई कागज इनके पास नहीं है। अपने ही देश और प्रदेश में रिफ्यूजी की तरह रह रहे दो सौ परिवारों का क्या है दर्द देखिये काशीपुर से हमारी एक खास रिपोर्ट।

ये कोई कहानी नहीं बल्कि हकीकत है उस गांव की जहां जानवरों की सुरक्षा के लिए इन्सानी जानों को गांव छोडना पड़ा। और सरकार ने फरमान जारी किया कि रामनगर कार्बेट टाइगर रिजर्व पार्क से सटे गांवों को खाली करा दिया जाए और उन्हे विस्थापित कर दुसरी जगहों पर विस्थापन दिया जाए। तत्कालीन समय में 221.634 हेक्टेयर भूमि रिजर्व फोरेस्ट और वन विभाग को घोषित कर दी गयी थी। जिसके चलते वर्ष 1993-1994 को पौडी जिले से सटे झिरना धारा कौठिरों के दो सो परिवारों को उत्तर प्रदेश के समय नैनीताल जिले के रामनगर, मानपुर, प्रतापपुर,फिरोजपुर में बसाने की कवायद शुरु की गयी थी। जहां तराई पश्चिमी वन प्रभाग रामनगर के आमपोखरा रेंज में भूमि आवंटन की प्रक्रिया शुरु की गयी थी। जहां लोगों को बसने के लिए कहा गया और जिसको जहां जगह मिली उसने वहीं मकान बना लिया, ना तो कोई लिखत पढत हुई और ना ही भूमि सम्बन्धि कोई दस्तावेज ही इन ग्रामीणों को मिले। लिहाजा जो भूमि इन विस्थापितों को आवंटित हुई वो आज भी राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं है, एसे में इन परिवारों ने घर तो बना दिये पर इनकी ना रजिस्ट्री हो पायी है और ना ही नख्शे ही पास हो सके। लिहाजा बिजली का कनेक्शेन भी फर्जी तरीके से करना पड़ा, और अब विस्थापित अपनी पहचान और जमीन के लिए मोहताज है। 21 सालों से अपनी पहचान के लिए लड़ाई लड़ रहे ये विस्थापित कई सरकारों के चेहरे देख चुके मगर अब हिम्मत हार चुके है।

विस्थापितों के नाम पर भूमि के आवंटन के खेल में भू माफियाओं ने भी जमकर चांदी काटी। भू माफियाओं ने तहसील कर्मचारियों की मिलीभगत से कागजों में हेरफेर कर आंवटित भूमि पर अवैध कब्जे करना शुरु कर दिया, कहीं का रकवा और दाखिल खारिज दिखाकर भू माफियाओं ने करोडों की भूमि के वारे न्यारे कर दिये। विस्थापितों को 21 साल से उनका कोई हक नहीं मिल पाया, एसे में जहां राजनैताओं ने वोट के लिए वोटर कार्ड तो बना लिए मगर आज भी उनकी वास्तविक पहचान के प्रमाण पत्र सरकारी फाईलों में गुम होकर रह गयी है। ना तो इनके नाम पर पास्टपोर्ट ही बन पाता है और ना ही बुनियादी सुविधाएँ, यही नहीं बैंक से यदि लोन भी लेना हो तो इसके लिए इनके पास कोई दस्तावेज नहीं है कि जिससे ये अपनी ही भूमि को अपना कह सके।

लिहाजा विस्थापन का दर्द झेल रहे दो सो परिवार अपनी पहचान को मोहताज है, बुनियादी सुविधाओं के अभाव में ये परिवार आज भी विस्थापन का दंश झेल रहे हैं वहीं अधिकारियों की माने तो इस सम्बन्ध कई बार वो पत्र व्यवहार कर चुके हैं लेकिन शासन स्तर पर ही फाईलों के पुलिंदे अटके हुए हैं वहीं इस बारे में कोई भी बयान देने से इन्कार कर दिया।

जानवरों की हिफाजत के लिे तो ठोस कानून बने हैं लेकिन इन्सानी जिन्दगियों के लिे ना तो ठोस रणनीति बनी और ना उनके अधिकार ही मिले, 21 सालों से अपनी पहचान तलाश रहे दो सो परिवारों के दर्द की आह सरकारों के कानों तक नहीं पहुंच रही है, जिसके चलते विस्थापित हुए ये दो सौ परिवार अपनी पहचान और अपनी धरोहर के लिए जंग तो लड रहे हैं लेकिन सरकारी फाईलों में दफ्न इन दो सो परिवारों के जमीनी कागजात कहां हैं ये किसी को पता नहीं है। अब सवाल ये उठता है कि आखिर कब सरकार इनकी सुध कब लेगी और कब विस्थापितों को उनका अधिकार मिलता है।