वनाग्नि घटना से औषधीय प्रजातियां हो रही विलुप्त

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File photo

चम्पावत,  मुख्य विकास अधिकारी एसएस बिष्ट ने कहा कि वनाग्नि की घटना से वन संपदा के नुकसान के साथ जैव विविधता पर व्यापक असर पड़ रहा है जिससे प्रति वर्ष कई औषधीय प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। इसके लिए पर्वतीय क्षेत्रों में पीरूल के इकठ्ठा करना होगा। जिससे आग की घटना और औषधीय प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा में कमी आएगी।

 विकास भवन सभागार में चीड़ वन क्षेत्रों में वनाग्नि रोकने, पिरूल से विद्युत उत्पादन व रोजगार सृजन तथा अन्य प्रकार के जैव-ईधनों से विद्युत उत्पादन के लिए सरकार द्वारा घोषित नीति-2018 के क्रियान्वयन के लिए एक दिवसीय कार्यशाला मुख्य विकास अधिकारी एसएस बिष्ट ने यह बातें कही। एसएस बिष्ट ने बताया कि राज्य में प्रति वर्ष लगभग 6 लाख मि.टन पिरूल के साथ-साथ 8 मि.टन बायोमास के अन्तर्गत उपज अवशेष, लैन्टाना आदि उपलब्ध होता है। पिरूल में आग लगने से प्रत्येक वर्ष लाखों की वन संपदा के नुकसान के साथ जैव विविधता पर भी व्यापक असर पड़ रहा है जिससे प्रति वर्ष कई औषधीय प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। उन्होंने कहा कि पिरूल से हो रही वन हानि को रोकने तथा पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए राज्य सरकार ने पिरूल के उपयोग से विद्युत उत्पादन, बायोऑयल आधारित औद्योगिक इकाईयों लगाने, ब्रिकेट तैयार कर भट्टियों, चूल्हों, बॉयलर आदि में ईधन के रूप में उपयोग किये जाने के लिए नीति तैयार की है।

नीति के अनुसार इकाईयों के स्थापित होने से न केवल स्थानीय ऊर्जा की पूर्ति होगी बल्कि इनसे रोजगार एवं राजस्व सृजन में भी सहायता मिलेगी। उन्होंने कहा कि राज्य सरकारी की इस नीति के अंतर्गत न्यूनतम 10 कि.वा. एवं अधिकतम 250 कि.वा. तक की पिरूल आधारित विद्युत उत्पादन परियोजना एवं 2000 मिट्रिक टन क्षमता तक की ब्रिकेटिंग व बायोऑयल इकाईयां लगाई जा सकेंगी। इस नीति का क्रियान्वयन वन विभाग एवं उरेडा द्वारा किया जायेगा।
उन्होंने कहा कि चीड़ के जंगल के क्षेत्र, उनसे प्राप्त होने वाले चीड़ की पत्तियों एवं अन्य बायोमास की उपलब्धता, स्थापित होने वाली इकाईयों की क्षमता एवं संख्या के निर्धारण हेतु मानचित्र तैयार किया जायेगा,। इसके उपरान्त उरेडा द्वारा विभिन्न अनुमन्य संस्थाओं से प्रस्ताव आमंत्रित किये जायेंगे।
उन्होंने कहा कि परियोजना स्थापित करने हेतु समुदाय आधारित संगठन वन पंचायत, ग्राम पंचायत, स्वयं सहायता समूह, उत्तराखंड की पंजीकृत सोसाईटी, उ.प्र. सहकारी अधिनियम-1965 के अधीन इकाई, उत्तराखंड आत्मनिर्भर सहकारी इकाई, स्वामित्व, भागीदारी,प्रा.लि. फर्म जो राज्य में पंजीकृत हो एवं जिला उद्योग कार्यालयों में पंजीकृत उद्योग, रेजिन इकाईयां इसके लिए पात्र होंगी।

मुख्य विकास अधिकारी ने बताया कि उरेडा द्वारा नीति के अन्तर्गत अर्ह संस्थाओं से निश्चित अवधि के दौरान प्रस्ताव आमंत्रण समाचार-पत्रों एवं उरेडा व वन विभाग की वेबसाईट पर भी उपलब्ध होगा। उन्होंने कहा कि प्राप्त होने वाले प्रस्तावों का परीक्षण, जांच तकनीकी मूल्यांकन समिति द्वारा करने के बाद पिरूल एकत्रीकरण, उपयोग तथा अन्य कार्यवाही हेतु उरेडा एवं वन विभाग के साथ त्रिपक्षीय एमओयू करना होगा और विद्युत विक्रय हेतु पावर कारपोरेशन के साथ पावर परचेज एग्रीमेंट होगा। उन्होंने कहा कि वन विभाग इसके लिए नोडल एजेन्सी होगी।

उन्होंने कहा कि 100 कि.वा. हेतु 1000 वर्गमी. भूमि परियोजना निर्माण हेतु स्वयं करनी होगी लेकिन भूमि क्रय की जायेगी तो स्टाम्प शुल्क पर राज्य सरकार द्वारा छूट प्रदान की जायेगी। उन्होंने कहा कि पिरूल आधारित विद्युत उत्पादन तथा बायोऑयल इकाईयों की स्थापना पर इन्हें उद्योग का दर्जा देने के साथ एमएसएमई नीति के अंतर्गत 30 से 60 प्रतिशत तक अनुदान, ऋण पर ब्याज छूट, विद्युत बिलों पर दो वर्ष की छूट, जीएसटी पर छूट आदि के साथ ही एनएनआईई भारत सरकार द्वारा अनुमन्य केन्द्रीय सहायता भी प्राप्त हो सकेंगी। कार्यशाला में खंड विकास अधिकारी चम्पावत पूरन सिंह रावत, क्षेत्रीय वनाधिकारी दीपक जोशी, टम्टा, उरेडा, वन पंचायत सरपंच आदि उपस्थित थे।