गढ़वाली भाषा व साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण के लिए शिक्षा विभाग ने अभिनव पहल की है। इसके तहत प्रदेश के विद्यालयों में गढ़वाली साहित्य पढ़ाने को कवायद शुरू हो चुकी है। एससीईआरटी (राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद) ने गढ़वाली साहित्य का पाठ्यक्रम तैयार कर इसके परिमार्जन को शिक्षकों से सुझाव मांगे हैं। इसके लिए नौ अप्रैल से पौड़ी जिले के चड़ीगांव स्थित जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित की गई है। पहले चरण में इसमें देहरादून, पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जिले के शिक्षक प्रतिभाग करेंगे। शिक्षा विभाग की इस पहल से राज्य में गढ़वाली भाषा, पहाड़ के रीति-रिवाज एवं संस्कृति के संरक्षण की उम्मीद जगी है।
राज्य गठन के बाद से ही लोक संस्कृति के संवाहक संगठन और लोक कलाकार गढ़वाली को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की गुजारिश सरकार से करते आ रहे हैं। उनका मानना है कि पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते चलन व मैट्रो सिटी कल्चर से नई पीढ़ी लोक संस्कृति व लोक विधाओं से विमुख होती जा रही है। युवा पीढ़ी को लोक कलाओं, रीति-रिवाजों व परंपराओं की जानकारी नहीं होने से लोक संस्कृति के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। साथ ही अंग्रेजी के हावी होने से युवा अबोध बंधु बहुगुणा, भीष्म कुकरेती, डॉ. भजन सिंह डॉ. गोविंद चातक, कन्हैयालाल डंडरियाल जैसे गढ़वाली साहित्यकारों के साहित्य से अनजान हैं। जबकि, किसी भी क्षेत्र की लोक संस्कृति के मूल तत्व उसकी भाषा व साहित्य में निहित होते हैं।
इसी लोक संस्कृति को बचाने के लिए अब शिक्षा विभाग ने गढ़वाली भाषा को स्कूली पाठ्यक्रम शामिल करने की कवायद शुरू की है। इसके लिए एससीईआरटी ने पहली से बारहवीं तक का पाठ्यक्रम तैयार कर लिया है। हालांकि, अभी पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन शुरू नहीं किया गया। लेकिन, प्रकाशन से पूर्व तैयार किए गए साहित्य के परिमार्जन को विशेषज्ञ शिक्षकों से सुझाव लिए जाएंगे।
एनसीईआरटी की निदेशक सीमा जौनसारी ने बताया कि गढ़वाली साहित्य को लागू करने के लिए पाठ्यक्रम तैयार किया जा चुका है। जल्द ही शिक्षकों व विशेषज्ञों के सुझावों के आधार पर इसे परिमार्जित कर पुस्तकें प्रकाशित करने की कार्रवाई शुरू कर दी जाएगी।