लद्दाख की गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के साथ चीनी सैनिकों की झड़प के बाद उत्तराखंड के चमोली जिले के नीती बॉर्डर पर भी भारतीय सेना की गतिविधियां बढ़ गई हैं। सेना और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आइटीबीपी) के जवान बॉर्डर पर लगातार पेट्रोलिंग कर रहे हैं। रात में नाइट विजन उपकरणों के सहारे निगहबानी की जा रही है। स्थानीय लोगों के अनुसार बॉर्डर पर सैन्य वाहनों की आवाजाही आम दिनों की अपेक्षा बढ़ गई है।
उत्तराखंड की चीन से 345 किलोमीटर लंबी सीमा में से 122 किलोमीटर उत्तरकाशी और 88 किलोमीटर सीमा चमोली जिले से सटी है। चमोली की नीती घाटी से सटी सीमा सर्वाधिक संवेदनशील है। यहां स्थित बाड़ाहोती क्षेत्र में चीन वर्ष 2014 से वर्ष 2018 के बीच दस बार घुसपैठ कर चुका है। यही वजह है कि सेना के लिए यह इलाका बेहद खास बन चुका है। स्थानीय लोगों के अनुसार इन दिनों सीमा पर आला अफसरों की आवाजाही भी बढ़ गई है। सीमावर्ती गांवों के लोगों को द्वितीय रक्षा पंक्ति कहा जाता है, तो इसकी वजह भी है। सीमा पर होने वाली अवांछित गतिविधियों पर तो यह रक्षा पंक्ति नजर रखती ही है, जरूरत पड़ने पर सेना के लिए मददगार भी साबित होती है। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चमोली जिले के नीती गांव के लोग घोड़े-खच्चर पर सैन्य सामान लादकर न केवल अग्रिम चौकियों तक गए, बल्कि वहां जवानों के साथ चार माह का वक्त भी बिताया।
चमोली जिले में जोशीमठ से करीब 85 किलोमीटर दूर है सरहद पर देश का आखिरी गांव नीती। इस गांव के रहने वाले 76 वर्षीय नारायण सिंह पेशे से किसान हैं। वर्ष 1962 के दिनों को याद करते हुए वह बताते हैं कि तब मेरी उम्र सिर्फ 18 साल की थी। सर्दियों के दिन थे। नीती गांव के लोग सर्दियों में चमोली के पास कौड़िया गांव में प्रवास करते हैं और गर्मियों में वापस नीती चले जाते हैं। वह बताते हैं कि उन दिनों नेफा में चीन ने आक्रमण किया तो यहां भी सीमा पर सतर्कता बढ़ाई गई। हालांकि यहां युद्ध नहीं हुआ था लेकिन सेना की तैनाती बढ़ाई गई। वह कहते हैं कि सर्दियों का मौसम था और भारी बर्फबारी के कारण रास्तों का भी पता नहीं चल रहा था। तब बाहर से आ रहे सैनिकों को सीमा तक पहुंचाने का काम नीती गांव के लोगों ने ही किया था। वह बताते हैं कि अपने घोड़े-खच्चरों पर सैनिकों का सामान लादकर वह सीमा तक गए। नीती गांव के ही 79 वर्षीय खुशहाल सिंह भी उन लोगों में शामिल थे, जो सेना के साथ नीती गांव तक गए थे। वह बताते हैं कि तब नीती और मलारी गांव के करीब 800 लोग अपने घोड़े खच्चरों के साथ सेना के साथ गए थे। 1962 से पूर्व इस इलाके के लोग तिब्बत से व्यापार करते थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद यहां से व्यावसायिक गतिविधियां बंद हो गईं। चमोली जिले की नीती, माणा पास व बाडाहोती चीन सीमा से सटे हुए है। गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद नीती घाटी पर भी चैकसी बरती जा रही है।
चरवाहों के लिए नहीं खुला इस बार बाडाहोती बुग्याली क्षेत्र
इस बार गलवान घाटी में भारत-चीन के बीच तनातनी के बाद नीती घाटी क्षेत्र में सेना की गतिविधियां बढ़ गई हैं। हालांकि नीती घाटी तक जिला प्रशासन की अनुमति के बाद स्थानीय भेड़ पालक चमोली जिले के अंतिम गांव नीती तक आवागमन कर रहे है लेकिन इससे पूर्व भेड़ पालक बाड़ाहोती तक अपने भेड़ों के साथ जाते थे लेकिन इस बार उस पर प्रतिबंध लगा हुआ है। बाड़ाहोती क्षेत्र भेड़ पालकों का सबसे पसंदीदा क्षेत्र माना जाता है। यहां पर हर वर्ष 20 से 25 भेड़ बकरियों की टोलियां जून से सितंबर माह तक यहां पर रहती है। यही चरवाहे मजबूत सूचना तंत्र का काम भी करते है। मलारी गांव के 88 वर्षीय दीवान सिंह कहते हैं चीन के सैनिक कई बार बाड़ाहोती में घुसपैठ कर चुके हैं। ये अलग बात है कि हमारे हिमवीर (आइटीबीपी के जवान) हमेशा उन्हें खदेड़ देते हैं लेकिन वे वहां मवेशी लेकर गए ग्रामीणों का खाद्यान्न आदि नष्ट कर देते हैं। इसके बावजूद ग्रामीण कभी डरे नहीं, वे हर साल वहां जाते हैं। दीवान कहते हैं बाड़ाहोती हमारा है और इस ओर कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। भेड़ पालक कल्याण समिति के सचिव रमेश फरस्वाण कहते हैं कि उम्मीद है कि जल्द ही सीमा पर स्थिति सामान्य हो जायेगी और उन्हें बाड़ाहोती जाने की अनुमति मिल जायेगी।
इस बार गांव छोड़ने को नहीं तैयार ग्रामीण
भारत-चीन सीमा पर हिमवीर तो मोर्चा संभाले हुए हैं ही, द्वितीय रक्षा पंक्ति माने जाने वाले सीमावर्ती गांवों के लोग भी चीन से लोहा लेने को तैयार हैं। चमोली जिले की नीती घाटी स्थित नीती, गमशाली और मलारी जैसे गांवों के लोग फिलहाल गांव नहीं छोड़ना चाहते। वह कहते हैं सीमा पर हालात सामान्य होने तक वे गांव में ही रहेंगे। इसकी वजह है कि सेना को कभी भी उनकी जरूरत पड़ सकती है। चमोली जिले में जोशीमठ से करीब 85 किलोमीटर दूर नीती घाटी में करीब दर्जन भर गांव इन दिनों आबाद हैं। इनमें ज्यादातर भोटिया जनजाति के लोग हैं। दरअसल, यहां के लोग सर्दियों में जोशीमठ और चमोली के पास अपने दूसरे गांवों में रहते हैं और गर्मियां शुरू होते ही परिवार के साथ वापस नीती घाटी आ जाते हैं। लद्दाख की गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद नीती घाटी में भी आक्रोश है। ग्रामीण चीन के खिलाफ प्रदर्शन कर अपना आक्रोश तो जाहिर कर ही रहे हैं, सीमा पर जा रहे सैनिकों का तालियां बजाकर अभिनंदन भी कर रहे हैं।
नीती घाटी के 76 वर्षीय किसान नारायण सिंह बताते हैं कि ज्यादातर लोग अप्रैल आखिर या मई की शुरुआत में यहां आ जाते हैं। इन दिनों राजमा, आलू, और चौलाई आदि की बुआई का कार्य पूरा हो चुका है। वह बताते हैं कि सामान्य तौर पर बुआई के बाद परिवार के ऐसे लोग जो अन्य व्यवसाय या नौकरी करते हैं, वे वापस चले जाते हैं और फसल कटाई के वक्त लौटते हैं लेकिन इस बार सभी लोग गांव में ही हैं। गमशाली गांव के रहने वाले 40 वर्षीय चंद्रमोहन फोनिया का जोशीमठ में होटल का कारोबार है। वह कहते हैं कि व्यवसाय और नौकरी देश से बढ़कर नहीं है। वह कहते हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध में हमारे बाप-दादा सेना की मदद के लिए घोड़े-खच्चर लेकर सीमा पर गए थे और करीब चार से पांच माह वहीं रहे थे। एक बार फिर सीमा पर तनाव है। वह कहते हैं हम किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने को तैयार हैं।