चीनी लड़ियों ने छीनी मिट्टी के दीपों की रौनक

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हम सबके घर रोशनी बांटने वाले कुम्हार आज बदहाल हैं। महंगाई और चीनी सामानों की व्यापकता ने पारम्परिक कलाकारों की कलाकारी समाप्त कर दी है। हम सब आधुनिकता की चकाचैंध में अपने पुराने उद्योगधंधों को समाप्त करते जा रहे हैं।
दीपावली जो दीपों का त्यौहार है, भारतीय परम्परा और भारतीय कला का महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। दीप पर्व के पीछे भगवान राम के लंका विजय कर वापस लौटने की कथा है लेकिन आज न तो इस कथा का महत्व है और न ही उप कलाधर्मियों का जो मिट्टी को सोना बनाने का काम करते थे। आज इन कलाकारों को कोई नहीं पूछ रहा है, इसका उदाहरण तब मिला जब कुम्हार मंडी निवासी रामफेर तथा उनके सहयोगी कलाकारों से बातचीत की गई।
चाक पर मिट्टी से दीप बनाकर अपना कारोबार चलाने वाले रामफेर तथा उनके सहयोगी मानते हैं कि शनिवार को दीया जाने के लिए दीयों की मांग जरूर है लेकिन दीपावली पर जितनी तेजी आनी चाहिए उतनी नहीं आती, इसका कारण चीनी लड़ियों, चीनी दीयें हैं जो सजावटी होने के कारण ज्यादा बिकते हैं। सच कहें तो चीनी उद्योग भारतीय उद्योग की कमर तोड़ रहा है लेकिन थोड़े से लालच के कारण व्यापारी चीनी माल को बेच रहे हैं, उनके लिए भारतीयों के माल की कोई कद्र नहीं है।
यही स्थिति एक महिला दीप विक्रेता की है। सरोजनी नाम की इस महिला का कहना था कि लोग मिट्टी के पारंपरिक दीयों को छोड़ अब चीन के जगमग दीये लेना पसंद कर रहे हैं। यही कारण है कि अब इस धंधे में उनकी आखरी पीढ़ी ही काम कर रही है। कल्लू कुम्हार का कहना है कि वह पिछले 40 सालों से मिट्टी के बरतन बनाने का काम कर रहे हैं। पहले इस काम में अच्छी आमदनी होता थी और घर का खर्चा भी चलता था, लेकिन अब उन्हें इस काम से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी है। उनके बच्चे अब इस काम से अब दूर हो चुके हैं। यही स्थिति सहारनपुर चौक, बंजारावाला चौक, कारगी चौक, एमडीडीए चौक, राजपुर रोड, रायपुर रोड और चकराता रोड पर दीये बेचने वालों की भी है जो अब लोगों के खरीदारी न करने से क्षुब्ध हैं। उनका कहना है कि अब इस कारोबार को छोड़ना ही पड़ेगा।