खतरे की घंटी: बड़े बांधों के विकास के बोझ तले दबा उत्तराखंड का पर्यावरण

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देवभूमि उत्तराखंड को देवस्थान के तौर पर जाना जाता है लेकिन आयेदिन राज्य में आ रही आपदाऐं इशारा कर रही हैं कि कहीं देव हमसे नाराज़ तो नहीं? आखिर क्या वजह है कि उत्तराखंड में आपदाओं की संख्या सबसे अधिक है और इन्हे रोकने के लिये सार्थक कदम नहीं उठाये जा रहे हैं।

इस समस्या को करीब से जानने के लिये हमें राज्य में विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध निर्माण पर ध्यान देने की ज़रूरत है। इन निर्माणों से जहां एक तरफ राज्य में विकास की पैरवी की जा रही वहीं इससे होने वाले नुकसान को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है।

हिमालय में चलने वाली निर्माण गतिविधि एक कारण है कि उत्तराखंड में बाढ़ और आपदा इतनी विनाशकारी हो गई है। जल विद्युत परियोजनाओं का अंधाधुंध निर्माण ऐसी ही गतिविधि है जिससे राज्य के मौसम को बहुत नुकसान हो रहा है। हालांकि इन परियोजनाओं को विकास के साथ जोड़ा जा रहा है, लेकिन जानकारों की राय में उन्हें बनाने से बहुत नुकसान हो रहा है।

सरकार द्वारा चलाई जा रही इन परियोजनों में पहाड़ों में खुदाई, ब्लासटिंग, उत्खनन,मलबा डंपिंग,भारी भरकम मशीनों का इस्तेमाल और पेड़ों और नदियों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। राज्य में होने वाले यह निर्माण हिमालयी पारिस्थितिकी पर प्रभाव डाल सकते हैं। इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य में इन जल विद्युत को बार-बार इस्तेमाल करने के लिए हमें जल विद्युत एनर्जी को सतत यानि की सस्टेनेबल बनाना होगा।

इन सभी मुद्दों को और ज्यादा समझने के लिए हमने डॉ.अनिल जोशी से बात की जिन्होंने हिमालयी पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन (Himalayan Environmental Studies and Conservation Organization or HESCO) हेस्को का गठन 1981 में किया था और साल 2006 में समाज में उनके योगदान के लिए उन्हें देश के चौथे सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से नवाज़ा गया।

डॉ अनिल जोशी जिन्हें माउंटेन मैन के नाम से भी जाना जाता हैं उन्होंने राज्य में हो रहे अंधाधुंध निर्माण पर कहा कि ‘’बेशक इस वक्त राज्य को बड़े-बड़े बांधों की नहीं बल्कि छोटे बांधों की जरुरत है।हम सब जानते हैं कि इन बांधों से बिजली का उत्पादन किया जा रहा है और अगर बड़े बांध बनाने की जगह हम छोटे बांध बनाए तब भी हम बिजली का उत्पादन कर सकते हैं और इससे हमारे पर्यावरण को नुकसान भी कम होगा।” डॉ अनिल ने कहा कि “बदलते समय के साथ बड़े बांधों का समय भी जा चुका है फिर भी उत्तराखंड में बड़े बांधों पर काम हो रहा जिससे ना केवल पर्यावरण को नुकसान हो रहा बल्कि उस क्षेत्र में रहने वालों लोगों को विस्थापन भी झेलना पड़ रहा है।रही बात इन सभी निर्माण को विकास से जोड़ने की तो विकास तो हो रहा है लेकिन बड़े निर्माण से राज्य को दूसरी बड़ी परेशानियों का सामना भी करना पड़ रहा है।अगर बांधों का मुख्य कार्य ही बिजली उत्पादन है तो छोटे बांध बनाओं और बिजली बनाओं इससे नुकसान भी कम होगा और फायदा भी उतना ही मिलेगा।लेकिन इन छोटे बांधों को बनाने के लिए सरकार की मंशा साफ होनी चाहिए तभी यह काम हो सकता है।”

जब हम बड़े बांधो की बात कर रहे हैं तो उत्तराखंड के पंचेश्वर बांध परियोजना को कैसे भूल सकते हैं।गौरतलब है कि उत्तराखंड की पंचेश्वर बहुउद्देश्य परियोजना एक महत्वाकांक्षी द्वि-राष्ट्रीय योजना है जिसका मकसद काठमांडू के साथ संबंधों को मजबूत करना था।यह परियोजना लगातार प्रगति कर रही है लेकिन उत्तराखंड के निवासियों ने इसके खिलाफ चिंताओं को उजागर किया है।

सिस्टम के खिलाफ दस साल के लंबे संघर्ष के बाद भी, उत्तराखंड सरकार ने अभी तक तीन जिलों, चंपावत, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा के लोगों की भावनाओं को नहीं सुना है। जो 5040 मेगावाट के पंचेश्वर बांध के प्रस्तावित निर्माण से काफी प्रभावित होंगे। बांध के निर्माण के कारण ये तीनों जिलें पानी के नीचे डूबे जाने के खतरे में हैं।

बांध का काम 1996 के भारत-नेपाल महाकाली ट्रिटी का हिस्सा है। इसके निर्माण का विरोध पर्यावरणविदों, बांध विरोधी कार्यकर्ताओं और नेपाल में माओवादी करते आ रहे हैं।

इस परियोजना से 5040 मेगावाट जल विद्युत उत्पादन होने की उम्मीद है, जबकि मुख्य पंचेश्वर बांध 4800 मेगावाट का जल विद्युत उत्पादन करेगा। यह उत्तराखंड को 12% बिजली भी देगा। प्रस्तावित परियोजना महाकाली नदी पर बनाई जा रही है जिसे भारत में सरदा भी कहा जाता है। इस परियोजना के कारण कुल 11600 हेक्टेयर इलाका जलमग्न होगा जिसमें भारत में कुल 7600 हेक्टेयर और और नेपाल में 4000 हेक्टेयर है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के इन तीन जिलों के लगभग 30,000 परिवारों सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। अधिकारियों का कहना है कि 134 गांवों में से 123 का पुनर्वास किया जाएगा। ग्रामीणों ने इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है और उन्होंने विरोध के एक हिस्से के रूप में विस्तृत परियोजना रिपोर्ट भी जला दी है।

बांधों के प्रभाव का बारीक अध्ययन करने वालों की मानें तो इससे जहां पहाड़ों में भू-स्खलन की घटनाओं में बढ़ोत्तरी देखने को मिलेगी वहीं, इस बांध से बनने वाली झील से पैदा होने वाले बादल फटने की संभवनाओं से इंकार नही किया जा सकता। पहाड़ों में साल भर नमी और कोहरे के हालात रहते हैं ऐसे मे अतिसंवेदनशील ज़ोन फाइव में प्रस्तावित इस बांध से जहां भूकम्प के झटकों में इजाफा होने की आशंका है, वहीं 116 वर्ग किलोमीटर की महाझील कई खतरों को एक साथ आमंत्रित करने के लिए काफी है।

पर्यावरण मामलों के जानकार प्रकाश भंडारी ने बताया कि “इतने भारी दवाब से कभी भी पहाड़ की धरती कांप सकती है। इसका खामियाज़ा पहाड़ों में रहने वालों के साथ ही मैदानी इलाकों को भी भुगतना पड़ेगा।”

अगर हम उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड की वेबसाइट की माने तो, इस वक्त उत्तराखंड में लगभग 3,164 मेगावाट की कुल क्षमता वाली 45 जल विद्युत परियोजनाएं चालू हैं, और लगभग 199 बड़ी और छोटी परियोजनाएं, जिनकी कुल क्षमता 17,559 मेगावॉट है उनका प्रपोजल जा चुका है और आने वाले समय में इनपर काम होगा।

यह केवल एक संयोग नहीं हो सकता है कि जिन जिलों में आपदा से सबसे ज्यादा विनाश होता है, उन्हीं जिलों में सबसे अधिक निर्माणाधीन या प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाएं भी है।

उदाहरण के लिए, पांच परिचालन परियोजनाओं के साथ उत्तरकाशी में 37 और परियोजनाएं या तो निर्माण मे है या प्रस्तावित है। इसी तरह, सबसे अधिक निर्माणाधीन या प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाएं पिथौरागढ़ और चमोली जिलों में हैं, जिनमें फिलहाल अधिकतम जल विद्युत परियोजनाएं हैं।

कौन से जिलों में अधिक जल विद्युत उत्पन्न होगा

क्षमता वृद्धि के मामले में, जिन जिलों में बाढ़ के अधिकतम प्रभाव का अनुभव हुआ- उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी और पिथौरागढ़-अधिकतम बिजली क्षमता वृद्धि देखेंगे। उदाहरण के लिए, रुद्रप्रयाग जिसमें अब तक केवल दो छोटी परियोजनाएं थी, जो अब तक 0.7 मेगावाट की क्षमता रखते थे, उनमें 1,075 मेगावॉट क्षमता की बढ़त होगी।

इसी तरह, पिथौरागढ़ में पहले से ही 290.55 मेगावाट की अधिकतम परिचालन क्षमता है, लेकिन निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं में 3,994.8 मेगावॉट क्षमता होगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परियोजनाएं बड़ी है या छोटी हैं, दोनों टिकाऊ तरीके से योजनाबद्ध नहीं होने पर इकोलॉजी को प्रभावित कर सकती हैं।

वहीं इन बड़े बांधो का पर्यावरण पर कैसा असर होता है इसके बारे में हमने एफआरआई यानि की फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के ग्लोबल क्लाइमेट चेंज साइंटिस्ट वी.के.एस रावत से बात की। उन्होंने हमे बताया कि “जब कहीं भी बड़े बांधों का निर्माण होता है तो उसमें बड़ी संख्या में जलमग्न होता है जिसकी वजह से बड़ी मात्रा में पेड़-पौधों से लेकर वेजिटेशन को नुकसान होता है।इस जलमग्न में 25प्रतिशत से भी ज्यादा मिथेन गैस बनती है जो पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाती है।इसके अलावा बड़े बाधों से लोकल माइक्रो क्लाईमेट चेंज होता है जो अपने आप में राज्य के मौसम के लिए नुकसानदेह है।बड़े बांधों के बनने से जहां बड़ी संख्या में मिथेन गैस की फार्मेशन होती है वहीं पानी के निचली सतह पर आक्सीजन की मात्रा भी कम होती है,जिससे नुकसान तो उत्तराखंड के मौसम को ही हो रहा है।”

उत्तराखंड राज्य में इन दिनों निर्माण कार्यों की बाढ़ सी आ गई है। लेकिन अगर बड़े निर्माणों की जगह छोटे-छोटे बांध बनाए जाए तो उससे बांध बनाने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट तो मिलेगा ही साथ में पर्यावरण को हो रहे नुकसान और मौसम को बदलने से रोका जा सकेगा।