देहरादून, उत्तराखंड पूरे देश को प्राण वायु देने वाला सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश है। गर्मियों में आगजनी के कारण यहां के जंगल धू-धू कर जलते हैं। कई बार अच्छी घास के लालच में ग्रामीण वनों में आग लगा देते हैं, जबकि कई बार लापरवाही के कारण सड़कों के किनारे फेंके गये बीड़ी-सिगरेट भी आगजनी का बड़ा कारण बनते हैं।
फरवरी से ही फायर सीजन शुरू हो जाता है। उत्तराखंड में वन क्षेत्र बड़ी संख्य में है। उत्तराखंड का कुल क्षेत्रफल जहां 53 हजार 483 वर्ग किलोमीटर है, वहीं 38 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र है।
इस वर्ष लगातार वर्षा के कारण आगजनी के प्रकरणो में कमी आई है। इस वर्ष की तुलना में गत वर्ष दस गुनी से अधिक घटनाएं हुई थी। इससे लाखों की वन क्षति हुई थी। जानकारी देते हुए मुख्य संरक्षक वनाग्नि रंजन कुमार मिश्र का कहना है कि इस वर्ष फायर सीजन में मात्र 21 घटनाएं प्रकाश में आई है। इन घटनाओं में 46 हजार रुपये की वन सम्पदा की क्षति हुई है। गत वर्ष 293 घटनाएं प्रकाश में आई थी जिनसे 8 लाख से अधिक की क्षति हुई थी। रंजन कुमार मिश्र का कहना है कि विभाग वनाग्नि के मसले पर पूरी सतर्कता बरत रहा है और वनाग्नि पर हमारी पूरी दृष्टि रहती है।
वन विभाग के आंकड़ों की माने तो गत वर्ष गर्मी के चलते भड़की आग के कारण उत्तराखंड के 13 जनपदों के कई जंगल चपेट में आ गये थे। कुमाऊ में तो काफी क्षति हुई इसमें झुलसकर छह व्यक्तियों की मौत हो गई थी। इसे काबू करने के लिए एनडीआरएफ की टीमें लगाई गई।
आग का सबसे ज्यादा कहर पौडी, टिहरी और नैनीताल में देखने को मिला है। आग पर नियंत्रण पाने के लिए राज्यपाल ने कर्मियों की संख्या तीन हजार से बढ़ाकर छह हजार कर दी है। आमतौर पर जंगलों में 15 फरवरी तक आग लगने की घटनाएं सामने आती हैं, लेकिन इस बार फरवरी की शुरुआत से ही ऐसी घटनाएं सामने आने लगी। यह बात अलग है कि गत वर्ष की तुलना में इस बार वनाग्नि के प्रकरण कम हुये हैं, ऐसा विभाग मानता है।