देश में प्लास्टिक को खत्म करने के लिए आए दिन मुहिम चलती रही है।उत्तराखंड राज्य भी प्लास्टिक को खत्म करने के लिए प्रयास में लगा हुआ है, लेकिन प्लास्टिक को जड़ से खत्म करना उतना आसान नहीं है जितना लगता है।इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए बीते दिनों राज्य के एक युवा देव भंडारी जो की ग्राम छियानी ब्लाक स्यालदे से हैं और अपनी प्राथमिक शिक्षा स्यालदे से की है ने उत्तराखंड में पैदा होने वाली रिंगाल के बारे में एक ब्लॉग लिखा जो वाकई एक ऐसा रास्ता है जिससे प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम कर, प्रदूषण भी कम कर सकता है।
अगर आप उत्तराखंड राज्य से संबंध रखते हैं तो आप जानते होंगे कि रिंगाल यहां के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है।इसी रिंगाल के बारे में अपनी रिसर्च और अध्ययन से देव भंडारी ने बहुत ही खूबसुरती के साथ लोगों के सामने प्रस्तुत किया है।
क्या है रिंगाल
यह उत्तराखंड के जंगलो में पाए जाने वाला वृक्ष हैं जो की बांस की प्रजाति का होता है, इसलिए इसे बौना बांस(dwarf bamboo) भी कहा जाता है। जहां बांस की लम्बाई 25-30 मीटर होती है वही रिंगाल 5-8 मीटर लम्बा होता है।यह 1000 – 7000 फ़ीट की ऊंचाई वाले क्षेत्रो में पाया जाता है, क्यूंकि रिंगाल को पानी एवं नमी की आवश्यकता रहती है।
उत्तराखंड में इसकी महत्ता इससे पता चलती है कि लोग अब इसको अपनी आजिविका के साधन के रुप में इस्तेमाल कर रहे हैं।रिंगाल के बारे में और बताते हुए हमें बताया कि अभी रिंगाल भौगौलिक रुप से विभाजित नहीं है और जहां भी यह उपलब्ध है वहां लोग इसका इस्तेमाल अपने जीवनयापन के लिए कर रहे हैं, खासकर के रिंगाल 2-3 हजार मीटर ऊचाई वाले स्थानों में यह अथाह संख्या में मिलता है। वर्तमान में, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में, बड़ी मात्रा में रिंगाल ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उपलब्ध है।इन क्षेत्रों में विशेष समुदाय के लोग परंपरागत रूप से रिंगल उत्पादों को अपनी आजीविका के रूप मे इस्तेमाल करते है। रिंगल कृषि आधारित उद्योग का एक हिस्सा है जो इस क्षेत्र के लोगों के रोज़गार का एक साधन है।
रिंगाल के बारे में और बात करते हुए चिन्मय शाह जो वर्तमान में चौखुटिया में स्थित INHERE (Institute of Himalayan Environmental Research and Education) नामक गैर-सरकारी संगठन के साथ काम कर रहे हैं उन्होंने बताया कि वो और उनके सहयोगी चमोली के गैरसैण ब्लॉक के दुधात्तोली क्षेत्र में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दी गई एक परियोजना पर काम कर रहे हैं।चिन्मय ने बताया कि हमने इस परियोजना के तहत 20 गांवों को चुना है जो रामगंगा नदी (पश्चिम) के आसपास क्षेत्र में स्थित है और ग्रामीण समुदायों के लिए मूल्यवर्धन, नए कृषि पद्धतियों और उद्यमी विकास पर प्रशिक्षण देकर कृषि आधारित आजीविका के अवसर स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।उन्होंने कहा कि स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके रोज़गार बढ़ाने की हम एक कोशिश कर रहे हैं और रिंगाल इसका एक हिस्सा है।
चिन्मय ने बताया कि, ‘उत्तराखंड में हजारों लोग इस माध्यम से रोजगार पा रहे हैं । यह एक अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा है और अलग-अलग समुदायों और क्षेत्रों में काफी हद तक बिखरा हुआ हैं।इसके अलावा, राज्य सरकार उत्तराखंड ने वास्तव में इस क्षेत्र में काम किया है और उन्होंने स्वयं इन कारीगरों को कार्ड जारी किया है जो अपने गांवों में पारंपरिक और प्राकृतिक वस्तुओं से उत्पाद बना रहे हैं। बांस बोर्ड, देहरादून ने पिछले कुछ वर्षों में इन कारीगरों को प्रशिक्षण भी दिया है।कुछ रिंगल कारीगर हैं जिनके पास सरकार द्वारा जारी आर्टिसन कार्ड हो सकता है,अगर उन्होंने खुद को पंजीकृत किया होगा।आम तौर पर कारीगरों के लिए खुद को पंजीकृत करना मुश्किल होता है क्योंकि वह उनके ही लिए बनी सरकारी योजनाओं से अनजान हैं।”
इस वक्त रिंगाल से बनाए गए वस्तुएं लोग अपने घरो में इस्तेमाल कर रहे हैं। मूल रूप से, रिंगल का उपयोग ऐसे उत्पादों को बनाने में किया जाता है जिनका उपयोग कृषि उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है।
- डोका (घास / लकड़ी /गोबर ले जाने के लिए)
- सुपा
- पचेरी (अनाज को नापने के लिए, दालों को 2 किलो तक)
- योगा मैट
- डाले (गोबर ले जाने के लिए)
- फल टोकरी।
नई वस्तुएं जो कुछ कलाकारों द्वारा बनाए और बेचे जा रहे हैं वे हैं:
- लालटेन
- फूलदान
- पेन स्टैंड
- फल टोकरी
- टेबल टोकरी
- सर्विस कटोरा
उत्तराखंड में पैदा होने वाले रिंगाल की डिमांड लोगों के बीच कैसी है इसपर वह बताते है कि, “हालांकि आजकल के युवा रिंगाल से नई डिजाइन की चीजें बना रहे लेकिन, बाजार में सीधे अपने प्रोडक्ट ना बेचने की वजह से कहीं ना कहीं नुकसान रिंगाल किसानों को झेलना पड़ रहा है। चूंकि मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में स्थित लोग प्लास्टिक और दूसरे मैटेरियल से बनी चीजों की कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं,तो रिंगल निर्माता जो गरीब हैं और अपने मुख्य खरीदारों से सीधे नहीं मिल पाते,वह इस अवसर का फायदा उठाने में असमर्थ हैं।” इसके अलावा कई लोग इस बात से अनजान हैं कि अक्सर बिचौलियों द्वारा लोगों को गुमराह किया जाता है। “लगातार मांग ना होने के कारण, रिंगाल कारीगर नए उत्पादों को बनाना पसंद नहीं करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उन्हें अच्छी आय नहीं देगा। यही कारण है कि वे पारंपरिक उत्पादों को बनाते रहते हैं क्योंकि उनके क्षेत्र के पास के स्थानीय ग्रामीण लगातार पारंपरिक चीजें ही खरीदते हैं। इसके अलावा, रिंगल उत्पादों को सस्ते चाइनीज प्लास्टिक के बने उत्पादों से बहुत कठिन प्रतिस्पर्धा मिल रही है जो हर छोटे गांव, शहर में कम दाम में उपलब्ध हैं।”
पारंपरिक उत्पादों के लिए कृषि मौसम के दौरान, मांग अधिकतम है। लेकिन नए और कस्टमाइज्ड उत्पादों के लिए, यह काफी हद सरकार पर निर्भर करता।सरकार द्वारा थोक में आर्डर मिलने पर औऱ कभी त्योहारों में लोग थोक में नए प्रोडक्ट का ऑर्डर देते हैं।
पारंपरिक उत्पादों के लिए डिमांड हर मौसम में लगभग बराबर है। लेकिन नए उत्पाद के लिए रिंगाल कारीगरों को सरकार पर निर्भर होना पड़ता है या कभी त्योहारों के दौरान लोग थोक में नए प्रोडक्ट का ऑर्डर देते हैं।
रिंगाल के बारे में और बात करते हुए देव भंडारी ने बताया कि, “जहाँ रिंगाल से बनी वस्तुवे सस्ती होती हैं वही दूसरी तरफ यह प्राकर्तिक देय हैं। रिंगाल से विभिन्न वस्तुवे बनायीं जा सकती हैं जो की ‘PLANET OR PLASTIC ‘ कैंपेन में उपयोगी हो सकती है।” देव भंडारी द्वारा लिखे गए ब्लॉग ने ना केवल लोगों के बीच रिंगाल को लेकर जागरुकता फैलाई बल्कि बहुत से लोगों को रिंगाल के जरिए रोजगार पाने का मौका भी दिया है।
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