दुनिया ने साल 2020 में कोरोना महामारी का जो रूप देखा उसने हर देश को जड़ों तक हिला कर रख दिया है। कोरोना ने जहां एक तरफ़ स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ खड़ी की हैं, वहीं, इसके साथ-साथ इस बीमारी ने कई अनय तरह की समस्याएं भी खड़ी कर दी हैं। हांगकांग की पर्यावरण सरंक्षण संस्था ‘ओसियंस एशिया’ ने इस बारे में ग्लोबल बाजार रिसर्च के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की है, जो पर्यावरण से जुड़े खतरों का कई स्तरों पर खुलासा करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना से जन्मी अन्य समस्याओं में समुद्री ईको सिस्टम का प्रदूषित होना सबसे बड़ी परेशानी है। इसका सबसे बड़ा कारण है इस्तेमाल के बाद लापरवाही से फेंके गए फ़ेस मास्क। एक अनुमान के मुताबिक़ करीब 150 करोड़ फेस-मास्क समुद्र में पहुंच रहे हैं। इस हजारों टन प्लास्टिक से समुद्र में फैलने वाले प्रदूषण के कारण समुद्री जीवों को जानलेवा खतरों का भी सामना करना पड़ेगा।
कोरोना से बचने के लिए पिछले कुछ महीनों में करीब 5200 करोड़ मास्क बने हैं। इनमें से करीब तीन प्रतिशत मास्क फेंके जाने के बाद समुद्र में पहुंचेंगे। एकबार इस्तेमाल किए ये मास्क मेल्टब्लॉन किस्म के प्लास्टिक से बने होते हैं। इसके कम्पोजिशन के कारण और संक्रमण की वजह से इसे री-साइकल करना मुश्किल है। यह समुद्रों में तब पहुंचता है, जब यह कचरे में फेंक दिया जाता है। प्रत्येक मास्क का वजन तीन से चार ग्राम होता है। ऐसे में एक अनुमान के मुताबिक करीब 6800 टन से ज्यादा प्लास्टिक प्रदूषण समुद्र में फेंका जायेगा। इसे प्राकृतिक रूप से नष्ट होने में करीब 450 साल लगेंगे।
एक अन्य रिसर्च कहती है कि अकेले आर्कटिक सागर में 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है।वहीं, एक और रिसर्च बताती है कि दुनियाभर के समुद्रों में 50 प्रतिशत कचरा केवल उन कॉटन बड्स का है, जिनका इस्तेमाल कान की सफाई के लिए किया जाता है। यह सारी रिसर्च इस तरफ़ इशारा करती हैं कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्रीय क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्रित हो गया है कि समुद्री जीव-जंतुओं का जीवन संकट में आने लगा है। प्लास्टिक जीव जगत के लिए खतरनाक साबित हो रहा है। लेकिन प्लास्टिक इतना फ़ायदेमंद है कि अगर इसके री-साइकल का सही प्रबंधन हो जाए तो इससे सड़कें और ईंधन तक बनाया जा सकता है।
साइंस एडवांसेज नामक रिसर्च मैगज़ीन में बताया है कि आर्कटिक समुद्र के बढ़ते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। वैसे जेआर जाम बैंक का दावा है कि समुद्र की तलहटी में 5 खरब प्लास्टिक के टुकड़े जमा हैं। हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि समुद्री जल में ही नहीं मछलियों के पेट में भी प्लास्टिक के टुकड़े पाए जाने लगे हैं। सबसे ज्यादा प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास स्थित समुद्र में मौजूद है। प्लास्टिक की समुद्र में भयावह उपलब्धि की चौंकाने वाली रिपोर्ट ‘यूके नेशनल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल’ ने भी जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक हर साल दुनिया भर के समुद्रों में 14 लाख टन प्लास्टिक फेंका जाता है। सिर्फ इंगलैंड के ही समुद्रों में 50 लाख करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। प्लास्टिक के ये बारीक कण (पार्टीकल) कपास-सलाई (कॉटन-बड्स) जैसे निजी सुरक्षा उत्पादों की देन हैं। ये समुद्री सतह को भारी बनाकर इसका तापमान बढ़ा रहे हैं। समुद्र में मौजूद इस प्रदूषण के सामाधान की दिशा में पहल करते हुए इंग्लैंड की संसद ने पूरे देश में पर्सनल केयर प्रोडक्ट के प्रयोग पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पारित किया है। इसमें खासतौर से उस कॉटन-बड्स का जिक्र है, जो कान की सफाई में इस्तेमाल होती है। इस्तेमाल के बाद फेंक दिये ये यह कॉटन-बड्स सीवेज के जरिए समुद्र में पहुंच जाते हैं। गौरतलब है कि ताजा अध्ययनों से जो जानकारी सामने आई है, उसमें दावा किया गया है कि दुनिया के समुद्रों में कुल कचरे का 50 फीसदी इन्हीं कपास-सलाईयों का है।
प्रदूषण से जुड़े रिसर्च यह साफ़ दिखाते हैं कि प्लास्टिक कबाड़ समुद्र द्वारा पैदा किया हुआ नहीं है। यह हमने पैदा किया है, जो विभिन्न रास्तों से होता हुआ समुद्र में पहुंचता है। इसलिए अगर समुद्र में प्लास्टिक कम करना है तो हमें अपने जीवन में इसका इस्तेमाल कम करना होगा। समुद्र का प्रदूषण दरअसल धरती पर हो रहे प्रदूषण का ही विस्तार है, लेकिन, यह हमारे जीवन के लिए धरती के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है।
आँकड़े बताते हैं कि दुनियाभर में बनने वाले सारे प्लास्टिक में से केवल 14 प्रतिशत प्लास्टिक को री-साइकल करना संभव हुआ है। भारत के केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय, महानगरों में प्लास्टिक कचरे को री-साइकल कर बिजली और ईंधन बनाने में लगा है। साथ ही प्लास्टिक के अलग अलग बात प्रॉडक्ट से शहरों और गांवों में सड़कें बनाने की दिशा में काम चल रहा है। हमारे जीवन में प्लास्टिक की भूमिका अहम हो गई है, लेकिन सके साथ साथ यह भी ज़रूरी है कि प्लास्टिक से पर्यावरण को हने वाले ख़तरों को कम किया जाये। ग़ौरतलब है कि प्लास्टिक तकरीबन 400 साल तक नष्ट नहीं होता है। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पोली एथलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लंबे समय तक नष्ट नहीं होती है।
यदि भारत में वेस्ट मैनेजमेंट और कचरे का रीसाइकल करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाये तो न केवल यह पर्यावरण के लिये मददगार होगा बल्कि, इससे रोज़गार के नये मौके भी पैदा होंगे। भारत में जो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, उसमें से 40 प्रतिशत का आज भी री-साइकल नहीं हो पा रहा है। यही नालियों-सीवरों और नदी-नालों से होता हुआ समुद्र में पहुंच जाता है।
प्लास्टिक की जटिलता यह भी है कि इसे तकनीक के जरिये पांच बार से भी अधिक री-साइकल किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान इससे वैक्टो ऑयल भी बाई-प्रॉडक्ट के रूप में निकलता है, इसे डीजल वाहनों में ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान समेत अनेक देश इस कचरे से ईंधन प्राप्त कर रहे हैं।भारत में भी प्लास्टिक से ईंधन बनाने का सिलसिला शुरू हो गया है। लेकिन अभी यह प्रारंभिक स्तर पर ही है।ऐसे में यह जरूरी है कि दुनियाभर में प्लास्टिक और उससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिये तेजी से काम किया जाये। इसके साथ ही यह देखना भी ज़रूरी है कि कोरोना महामारी के समय में फ़ेस मास्क से समुद्रों और पर्यावरण को जो ख़तरा खड़ा हो रहा है उसे कैसे ख़त्म किया जा सकता है। इसके लिये ज़रूरी है कि देश भर की सरकारें समय रहते रणनीति बनाकर काम करना शुरू करें।