किसान आंदोलन: सड़क पर किसान, सरकार हैरान-परेशान

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(नई दिल्ली) देश का अन्नदाता देश की राजधानी की सीमा पर धरना दे रहा है। आधी रात का नजारा ऐसा कि सड़क पर दूर दूर जहां भी नजर जाए, लेटे-बैठे किसान झुंड के झुंड मिल जाएं। ठेठ भाषा में सबका जवाब एक सा- ‘भई हम तै किसान हैं, रात ने खेतों में यूईं पडै रैं। देखें कि सरकार हमें कब तक रोकैगी।‘ रोकने की तैयारी तो सरकार ने की थी। पर दिखता यह है कि सरकार से भी बड़ी तैयारी में किसान आए हैं। ट्रैक्टर ट्राली पर उनके खाने-पीने से लेकर सोने-पहनने तक का सामान मौजूद है। वैसे भी जरूरत पड़ने पर मेरठ-मुजफ्फर नगर कौन सा दूर हैं। वहीं के किसान ज्यादा हैं, इसलिए सहायता भी तुरंत आ सकती है। यही शासन-प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है। पेशानी पर बल पड़ गए हैं- अगर किसान नहीं माने और यह धरना कल भी नहीं खत्म हुआ तो..।
लाख टके का यह सवाल क्षेत्रीय एसएचओ यानि थानाध्यक्ष राजपाल सिंह के सामने भी था। जवाब भी है कि बातचीत अब भी जारी है, कल यानि बुधवार तक सब ठीक हो जाएगा। पर किसान क्रांति यात्रा को लेकर जिस कदर राजनीति गरमाई है, उस पर रोटी सेंकने वालों का भी कल तांता लगने वाला है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड़्डा समेत कई नेता आने वाले हैं। चुनावी मौसम है, इसलिए कोई इसका लाभ उठाने से पीछे नहीं रहना चाहता। निशाने पर मोदी सरकार है। उसका दावा है कि उसने किसानों को लागत से डेढ गुना समर्थन मूल्य सहित ढ़ेरों ऐसे काम किए हैं जिससे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। पर राजधानी की सीमा पर आक्रोशित किसान पूछ रहा है कि 10 दिन में हरिद्वार से चलकर और 200 किलोमीटर की यात्रा के दौरान जब हमने कोई शांति भंग नहीं की तो हमें दिल्ली की सीमा पर सोने के लिए क्यों मजबूर किया गया। क्या अन्न पैदा करने वालों को दिल्ली में जाने का अधिकार नहीं है। दूसरा सवाल यह भी है कि सुई बनाने वाले से लेकर हवाई जहाज बनाने वालों को अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार है तो किसान अपनी उपज का मूल्य क्यों नहीं निर्धारित कर सकता। दर्द यह भी है कि सरकारें आईँ और चली गईं, बाप-दादा पैदा हुए और मर गए, हम किसानों के हालात में कोई अंतर नहीं आया। सबका पेट भरने के बावजूद हम कर्जदार और भिखारी ही बने हुए हैं। सरकार से अपना हक मांग रहे हैं और लाठियां खा रहे हैं।
शासन प्रशासन की आशंका थी कि इतनी बड़ी संख्या में किसान अगर राजघाट पहुंच जाते तो उनको संभालना मुश्किल होता। दूसरा डर 1988 की पुनरावृत्ति का भी था। तब किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में लालकिले पर जुटे किसानों ने राजीव गांधी सरकार को नाको चने चबबा दिए थे। इसलिए सावधानी बरती गई। इसके बावजूद दिल्ली-उ.प्र. सीमा पर सुबह हल्का बल प्रयोग करना पडा। हांलाकि स्थिति नियंत्रण में रही पर बातचीत के बाद गतिरोध बने रहने के चलते हालात यह हैं कि किसान तो सड़क पर खुले में पड़े हैं। आधी रात के समय भी सीमा पर बेरकेटिंग लगाए एक तरफ सुरक्षा बल मुस्तैद थे तो दूसरी तरफ किसान आंदोलनकारी भी मुस्तैद। उन्हें डर था कि कहीं दिल्ली पुलिस उसी तरह की कार्रवाई न कर दे जैसी बाबा रामदेव के आंदोलन के समय की थी।

सुरक्षा बलों ने बेरिकेटिंग के दूसरी तरफ खड़े ट्रैक्टर ट्रालियों के टायर की हवा निकाली दी है, ताकि वे आगे न बढ़ सकें। दूसरी तरफ वाटर कैनन से लेकर भीड. को तितर-बितर करने के अन्य उपकरण भी मौजूद हैं। आशंका यह भी है कि सुबह होने के बाद आस-पास के इलाकों से कुछ और भी किसान जुट सकते हैं। इसलिए दिल्ली पुलिस और गाजियाबाद पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी आधी रात को सीमा पर ही स्थित एक होटल में समीक्षा बैठक में जुटे थे। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक सत्ता के गलियारों में गहमागहमी अब भी जारी है। केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को लगता है कि किसानों के नेता राकेश टिकैत ने मांगे माने जाने के बाद धरना खत्म न कर वादाखिलाफी की है। पर धरना दे रहे राशन पैदा करने वालों का मूड बता रहा है कि वे इस बार केवल आश्वासन लेकर जाने वाले नहीं हैं।