उत्तराखंड की लोकगायिका कबूतरी देवी का निधन

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(देहरादून) उत्तराखंड की पहली लोकगायिका कबूतरी देवी का पिथौरागढ़ जिला अस्पताल में शनिवार की सुबह निधन हो गया। उनके निधन की सूचना पर संस्कृतिकर्मियों में शोक की लहर दौड़ पड़ी।
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित कबूतरी देवी (73) का गुरुवार रात अचानक सांस लेने और हार्ट में समस्या के चलते परिजन उन्हें जिला अस्पताल में भर्ती में भर्ती कराए थे। लोकगायिका को इमरजेंसी में रखा गया था। कबूतरी देवी की बेटी हेमंती ने बताया कि उनके हाथ-पैर भी काम नहीं कर रहे थे। जहां वरिष्ठ फिजिशियन डॉ. एसएस कुंवर की देखरेख में उनका स्वास्थ परीक्षण किया गया। उन्होंने बताया कि ब्लड प्रेशर कम है और उनका हॉर्ट कमजोर की शिकायत थी। उपचार के बाद हालत में हल्का सुधार होने के बाद उन्हें हायर सेंटर के लिए रेफर कर दिया है। परिजन उन्हें हेलीकॉप्टर से देहरादून ले जाने का प्रयास कर रहे थे। शक्रवार सायं उन्हें हैलीकॉप्टर से देहरादून ले जाना था। शाम को हेलीकॉप्टर नही आया। शनिवार सुबह भी हेलीकॉप्टर नहीं पहुंचा और उनकी अस्पताल में ही मौत हो गई। उनके मौत की खबर सुनते ही जिला चिकित्सालय में शुभचिंतकों की भीड़ लग गई। वहीं उनके मौत पर राजनीतिक, सामाजिक संगठन सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने दुख जताया है। ​वहीं लोगों का कहना है कि बेहतर उपचार के अभाव में कबूतरी देवी का निधन हो गया। मौत की खबर के बाद से परिजनों का रो-रोकर बुरा हाल है। वहीं उनके प्रशंसकों में शोक की लहर है। लोक गायिका कबूतरी देवी पिथौराघड़ जिले के क्वीतड़ गांव की रहने वाली थीं। गायन की कई विधाओं में माहिर लोक गायिका राज्य की सांस्कृतिक विरासत का प्रदर्शन देश भर में कर चुकी हैं।

तीजनबाई के नाम से मशहूर थी लोकगायिका कबूतरी देवी

प्रदेश की मशहूर लोकगायिका कबूतरी देवी उत्तराखंड की तीजनबाई ने नाम से जानी जाती थी। वे पहली बार दादा-नानी के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित और प्रसारित किया था। जब उन्होंने आकाशवाणी पर प्रस्तुतियां देनी शुरू की थीं, उस वक्त कोई महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिए नहीं गाती थीं। 70 के दशक में उन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी।
कबूतरी देवी विशेषतः ऋतु आधारित गीत (ऋतुरैंण) गाया करती हैं, कबूतरी देवी ने जो भी गीत गाये वे दादी-नानी से विरासत में मिले प्रकृति से संबंधित लोकगीत थे। अर्थात पहाड के आम जनमानस में बसे लोकगीतॊं को पहली बार उन्होंने बाहर निकाला। उन्होंने आकाशवाणी के लिये लगभग १०० से अधिक गीत गाये, उनके गीत आकाशवाणी के रामपुर, लखनऊ, नजीबाबाद और चर्चगेट, मुंबई के केन्द्रों से प्रसारित हुये।
संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने गांव के देब राम और देवकी देवी और अपने पिता रामकाली से ली, जो उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे। लोक गायन की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही ली। पहाड़ी गीतों में प्रयुक्त होने वाले रागों का निरन्तर अभ्यास करने के कारण इनकी शैली अन्य गायिकाओं से अलग है। विवाह के बाद इनके पति दीवानी राम ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और इन्हें आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया। उस समय तक कोई भी महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये नहीं गाती थीं। ७० के दशक में इन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी।
उन दिनों उन्हें इन केन्द्रों तक उनके पति लेकर जाते थे, जिन्हें वे नेताजी कहकर पुकारती हैं और एक गीत की रिकार्डिंग के उन्हें 25 से 50 रुपये मिलते थे। अपने पति की मृत्यु की बाद इन्होंने आकाशवाणी के लिए और समारोहों के लिये गाना बन्द कर दिया था। इस बीच इनका एक मात्र पुत्र पहाड़ की नियतिनुसार पलायन कर गया और शहर का ही होकर रह गया। लेकिन पहाड़ को मन में बसाये कबूतरी को पहाड से बाहर जाना गवारा नहीं था।