मिसाल: पति-पत्नी नें बंजर भूमि में उगाईं जड़ी- बूटियां

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दंपति
गोपेश्वर, यह कहानी सीमांत जनपद चमोली के देवाल ब्लाॅक के सदूरवर्ती गांव वाण के किसान दंपति पान सिंह बिष्ट और बुदुली देवी की है। यह इलाका निर्जन जंगल और बुग्याल है। तीन महीने बारिश और तीन महीने बर्फ से ढका रहता है। यह हिमालय का अंतिम आबादी वाला गांव है।  दंपति ने अपनी बंजर भूमि में परम्परागत खेती से इतर बहुमूल्य औषधि गुणों से भरपूर जड़ी- बूटियों को उगाकर अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है।
उन्होंने कुटकी, जटामासी, गंदरायण, कूट सहित अन्य जड़ी-बूटियों को उगाया है। साथ ही 100  से अधिक सेब के पेड़ भी लगायें हैं। इन्हें हर साल लाखों की आमदनी होती है। अपितु अच्छा खासा मुनाफा भी हो जाता है। इसके अलावा दोनों मत्स्य पालन और पाॅली हाउस के जरिए सब्जी उत्पादन कर रहे हैं। अब ये मौन पालन और कुक्कुट पालन करने की भी योजना बना रहे हैं। दोनों दस साल से हर्बल खेती कर रहें हैं।
पान सिंह कहते हैं कि परम्परागत खेती घाटे का सौदा है। बहुत सारी समस्याएं हैं। बेमौसम बारिश, सूखा, कीट पंतगों से लेकर जंगली जानवरों से नुकसान का खतरा बना रहता है।अत्यधिक मानव श्रम लगता है। हर्बल खेती में श्रम, लागत कम और मुनाफा बहुत ज्यादा है।उन्होंने युवाओं से हर्बल खेती को स्वरोजगार की तरह अपनाने की अपील की है।
उल्लेखनीय है कि चमोली, पिथौरागढ़, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी में किसान हर्बल खेती कर रहें हैं। अतीश, कुठ, कुटकी, करंजा, कपिकाचु और शंखपुष्पी जैसे हर्बल पौधों की खेती से किसानों का छोटा समूह भी तीन लाख रुपये प्रति एकड़ तक की कमाई कर रहा है। हिमालयी क्षेत्र से सटे गांवों में छह हजार से अधिक परिवार जड़ी-बूटी की खेती कर रहे हैं। सालमपंजा, जटामासी सहित कुछ अन्य जड़ी-बूटियों के दोहन व बिक्री को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। इनका दोहन केवल नाप भूमि में खेती करने के बाद ही किया जा सकता है।