देश भर में जहां रंगों से भरी होली फाल्गुन माह में गाई व खेली जाती है, वहीं कुमाऊं की परंपरागत कुमाउनी होली की एक विशिष्टता बैठकी होली यानी अर्ध शास्त्रीय गायकी युक्त होली है, जिसकी शुरुआत पौष माह के पहले रविवार से ही विष्णुपदी होली गीतों के साथ हो जाती है। शास्त्रीयता का अधिक महत्व होने के कारण शास्त्रीय होली भी कही जाने वाली कुमाऊं की शास्त्रीय होली की शुरुआत करीब 10वीं शताब्दी में चंद शासनकाल से मानी जाती है।
कुछ विद्वानों के अनुसार चंद शासनकाल में बाहर से ब्याह कर आयीं राजकुमारियां अपनी परंपराओं व रीति-रिवाजों के साथ होली को भी यहां साथ लेकर आयीं। वहीं अन्य विद्वानों के अनुसार प्राचीनकाल में यहां के राजदरबारों में बाहर के गायकों के आने से यह परंपरा आई है।
कुमाऊं के प्रसिद्ध जनकवि स्वर्गीय गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने कहा था कि कुमाऊं की शास्त्रीय गायकी होली में बृज व अवध से लेकर दरभंगा तक की परंपराओं की छाप स्पष्ट रूप से नजर आती है तो नृत्य के पद संचालन में ठेठ पहाड़ी ठसक भी मौजूद रहती है। इस प्रकार कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी तथा एक-दूसरे से गले मिलने में आपसी प्रेम बढ़ाने वाले त्योहारों की झलक भी दिखाती है। साथ ही कुमाउनी होली में प्रथम पूज्य गणेश से लेकर गोरखा शासनकाल से पड़ोसी देश नेपाल के पशुपतिनाथ शिव की आराधना और ब्रज के राधा-कृष्ण की हंसी-ठिठोली से लेकर स्वतंत्रता संग्राम और उत्तराखंड आंदोलन की झलक भी दिखती है। यानी यह अपने साथ तत्कालीन इतिहास की सांस्कृतिक विरासत को भी साथ लेकर चली हुई है।
सामान्यतया कुमाउनी होली को भी कुमाउनी रामलीला की तरह ही करीब 150-200 वर्ष पुराना बताया जाता है, लेकिन जहां कई विद्वान इसे चंद शासन काल की परंपरा की संवाहक बताते हैं, वहीं प्रख्यात होली गायक और बॉलीवुड में भी प्रदेश के लोक संगीत को पहचान दिलाने वाले प्रभात साह गंगोला सहित अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि इसका इतिहास प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी अल्मोड़ा की स्थापना से भी पूर्व, चार शताब्दियों से भी अधिक पुराना है। इनके अनुसार कुमाउनी होली का मूल स्वरूप काली कुमाऊं से खड़ी होली के स्वरूप में आया होगा, लेकिन चंद वंशीय शासकों की राजधानी अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां और गम्मन खां की शागिर्द ठुमरी गायिका राम प्यारी जैसी गायिकाएं यहीं आई और स्थानीय शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार शिव लाल वर्मा आदि उनसे संगीत सीखने लगे। वह 14 मात्रा में पूरी राग-रागिनियों के साथ होली गाते थे।
ऐसे ही अन्य बाहरी लोगों के साथ कुमाउनी होली में ब्रज, अवध व मगध के अष्टछाप कवियों के ईश्वर के प्रेम में लिखे गीत आए। कालांतर में होलियों का मूल शास्त्रीय स्वरूप वाचक परंपरा में एक से दूसरी पीढ़ी में आते हुए और शास्त्रीय संगीत की अधिक गहरी समझ न होने के साथ लोक यानी स्थानीय पुट से भी जुड़ता चला गया, और कुमाउनी होली कमोबेश शास्त्र व लोक की कड़ी सी बन गई। कुमाउनी होली की एक और खासियत यह भी है कि यह पौष माह के पहले रविवार से ही शुरू होकर फाल्गुन माह की पूर्णिमा तक सर्वाधिक लंबे अंतराल तक चलती है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि (प्राचीन काल में) शीतकाल में पहाड़ों में कृषि व अन्य कार्य सीमित होते थे। ऐसे में लंबी रातों में मनोरंजन के साधन के तौर पर भी होली गायकी के रात-रात लंबे दौर चलते थे। यह परंपरा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखी जाती है। कुमाउनी होली में विभिन्न प्रहरों में अलग अलग शास्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। शुरुआत बहुधा धमार राग से होती है, और फिर सर्वाधिक काफी व पीलू राग में तथा जंगला काफी, सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, झिंझोटी, भीम पलासी, खमाज व बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गाई जाती हैं।