जलियांवाला बाग हत्याकांड का प्रतिशोध लेने वाले क्रांतिकारी ऊधम सिंह का जन्म 29 दिसम्बर 1869 को सरदार टहल सिंह के घर पर हुआ था। ऊधम सिंह के माता -पिता का देहांत बहुत ही कम अवस्था में हो गया था। इस कारण परिवार के अन्य लोग उन पूरा ध्यान नहीं दे सके। उन्होंने काफी समय तक भटकने के बाद अपने छोटे भाई के साथ अमृतसर के पुतलीघर में शरण ली, जहां एक समाजसेवी संस्था ने उनकी सहायता की। मात्र 16 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने बैसाखी के पर्व पर अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार को अपनी आंखों से देखा। सभी लोगोें के घटनास्थल से चले जाने के बाद वे वहां फिर गये और वहां की मिट्टी को अपने माथे पर लगाकर उस कांड के अंग्रेज खलनायकों से बदला लेनेे की प्रतिज्ञा की। इसके लिए उन्होंने अमृतसर में एक दुकान भी किराये पर ली। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वे अफ्रीका से अमेरिका होते हुए 1923 में इंग्लैंड पहुंच गये। वहीं क्रांतिकारियों से उनका संपर्क हुआ। 1928 में वे भगत सिंह के कहने पर भारत वापस आ गये। लाहौर में उन्हें शस्त्र अधिनियिम के उल्लंघन के आरोप में पकड़ लिया गया और चार साल की सजा सुनायी गयी। इसके बाद वे फिर इंग्लैंड चले गये।
13 मार्च 1940 को वह शुभ दिन आ ही गया जब ऊधम सिंह को अपना संकल्प पूरा करने का अवसर मिला। इंग्लैंड की राजधानी लंदन के कैक्स्ट्रन हाल में एक सभा होने वाली थी। इसमें जलियावांला बाग कांड के दो खलनायक सर माइकेल ओ डायर तथा भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी आफ स्टेट लार्ड जेटलैंड आने वाले थे। ऊधम सिंह चुपचाप मंच की कुछ दूरी पर बैठ गये और उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लग गये। सर माइकेल ओ डायर ने भारत के खिलाफ खूब जहर उगला। जैसे ही उसका भाषण पूरा हुआ ऊधम सिंह ने गोलियां उसके सीने में उतार दीं। वह वहीं गिर गया। लेकिन किस्मत से दूसरा खलनायक भगदड़ की वजह से बच कर निकल गया। दूसरी ओर भगदड़ का लाभ उठाकर ऊधम सिंह भागे नहीं अपितु स्वयं ही अपने आप को गिरफ्तार करवा लिया।
न्यायालय में ऊधम सिंह ने सभी आरोपों को स्वीकार करते हुए कहा कि मैं गत 21 वर्षों से प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा था। डायर और जैटलैंड मेेरे देश की आत्मा को कुचलना चाहते थे। इसका विरोध करना मेरा कर्तव्य था। न्यायालय के आदेश पर 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविला जेल में ऊधम सिंह को फांसी दे दी गयी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 27 साल बाद 16 जुलाई 1974 को उनके भस्मावशेषों को भारत लाया गया तथा पांच दिन बाद हरिद्वार में प्रवाहित किया गया।