गुम हो रही है ढोल वादन की महत्वपूर्ण कला

    0
    3550

    उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों में जहां बांसुरी, नफीरी, खंजड़ी जैसे वाद्ययंत्र आम प्रचलन में हैं। वहीं ढोल दमाऊ पर्वतीय सांस्कृति की विरासत के रूप में जाने जाते हैं। इनके बिना कोई शुभ काम जीवन में पूरे नहीं होते। त्योहार तो उनके बिना त्योहार तो अधूरे रहते हैं। ढोल और दमाऊ दोनों हर्ष, उल्लास और खुशी के प्रतीक हैं।

    ढोल के प्रमुख वादक सूरतू राम कहते हैं कि, ‘ढोल भारतीय संस्कृति के लिए विशेषकर पहाड़ी संस्कृति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। यह उत्तराखंडी संस्कृति का संवाहक व सामाजिक समरसता का अग्रदूत है।’ उन्होंने बताया कि, ‘ढोल सुरों का सरताज हैं। एक ढोल से 600 से 1000 तक ताल निकलते हैं जबकि तबले पर 300 ही बज पाते हैं। कलाधर्मिता और उचित प्रशिक्षण के अभाव में सालों-साल यह पौराणिक विरासत लुप्त होने की कगार पर है।’

    हालांकि सरकार में संस्कृति विभाग नाम का एक विभाग है जिसका काम ही संस्कृति का संरक्षण है, लेकिन यह विभाग भी ढापोर शंखी घोषणाओं के माध्यम से कला संस्कृति के संरक्षण का दावा तो करता है, लेकिन यह सच नहीं है। जिसके कारण कला और कलाधर्मिता दोनों गुम हो रही है। उत्तराखंड में इसी कला को बचाने के लिए ढोल सागर जैसी रचना हुई थी, लेकिन अब ढोली, औजी तथा ढोल सांस्कृतिक रचनाओं से जुड़े कलाकार धीरे-धीरे इनसे विमुख होते जा रहे हैं इसका कारण ढोल तथा दमाऊ बजाने में उतना आर्थिक लाभ न होना है।

    संस्कृति विभाग के सूत्र बताते हैं कि देहरादून में 6 अगस्त से 10 अगस्त तक पांच दिवसीय ढोल-दमाऊं की बृहद कार्यशाला का आयोजन किया जायेगा, जिसमें उत्तराखंड के लोक पारम्परिक कलाकार जो ढोल दमाऊं वादन में दक्ष हो और जिनकी अधिकतम आयु 62 वर्ष हो इस कार्यशाला में भाग ले सकते हैं। ढोल वादन से जुड़ी लोकसंस्कृति कर्मी माधुरी बत्रवाल कहतीं हैं कि, ‘ढोल हमारी लोकसंस्कृति का अहम हिस्सा है। ढोल हमारे लोक जीवन में इस कदर रचा-बसा है की इसके बिना शुभ कार्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। जहां लोग विदेशों से ढोल सागर सीखने उत्तराखंड आ रहे हैं, वहीं हम अपनी इस पौराणिक विरासत को खोते जा रहे हैं। ऐसे में हमें इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए आगे आना होगा। इसलिए ढोल सागर को जानने वाले कलाकारों के लिए ये एक बेहतरीन अवसर है। अपनी कला को पहचान दिलाने के लिए। आशा है कि काफी संख्या में लोग जरूर इस आयोजन में शरीक होंगे। वास्तव मे ढोल दमाऊं बरसों से हमारी लोकसंस्कृति का द्योतक रहा है।’

    हेमवंती नंदन गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के लोकसंस्कृति एवं निष्पांदन कला केंद्र के निदेशक डॉक्टर दाताराम पुरोहित ने तो कई ढोल कलाकारों की कला को लिपिबद्ध और रिकॉर्डिंग की है, यदि हमारे ढोल को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर नई पहचान दिलाई जानी हैं तो इस तरह के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए।