प्रदेश सरकार के मुखिया की कुर्सी से हटने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत इन दिनों अजीब से हालातों से गुजर रहे हैं। त्रिवेंद्र के केंद्रीय राजनीति में नई पारी की बातें तो कही जा रही हैं, लेकिन स्पष्ट फिलहाल कुछ नहीं है। कुछ इसी तरह के अनुभव से पूर्व में बीसी खंडूडी, डाॅ. रमेश पोखरियाल निशंक और विजय बहुगुणा जैसे पूर्व मुख्यमंत्री भी गुजर चुके हैं।
फिलहाल खंडूडी, निशंक, बहुगुणा जैसे अनुभव ले रहे पूर्व मुख्यमंत्री रावत भी
पूर्व मुुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत इस वक्त सिर्फ डोईवाला विधायक हैं। विधानसभा चुनाव अगले साल फरवरी में होने हैं। भाजपा के हाईकमान ने उनकी नई भूमिका के बारे में अभी कुछ स्पष्ट नहीं किया है। लिहाजा इस वक्त वह काफी हद तक खालीपन के दौर से गुजर रहे हैं। आनेेे वाले दिनों में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के लिए डोईवाला सीट छोड़ने और गढ़वाल संसदीय सीट पर उन्हें उम्मीदवार बनाने की संभावनाओं पर यदि पार्टी आगे बढ़ती है, तोे तब जरूर वह व्यस्त हो जाएंगे।
इन स्थितियों के बीच, उत्तराखंड राज्य गठन के बाद के कई मौकों पर मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कई दिग्गजों को उसी तरह के दिन काटनेे पड़े थे, जैसे आजकल त्रिवेंद्र सिंह रावत काट रहे हैं। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री होने के बाद अब उनका सियासी कद बहुत बड़ा हो चुका हैं। त्रिवेंद्र जैसी स्थिति में सबसे पहले बीसी खंडूडी 2009 में आए थे, जबकि उन्हें हटाकर डाॅ. रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। खंडूडी तब सिर्फ धुमाकोट विधायक थे और केंद्रीय हाईकमान ने उनका कहीं और उपयोग नहीं किया था। हालांकि 2011 में विधानसभा चुनाव से ठीक तीन महीने पहले उन्हें फिर से मुख्यमंत्री बना दिया गया था और डाॅ. रमेश पोखरियाल निशंक सिर्फ थलीसैंण विधायक रह गए थे। डाॅ. निशंक के पक्ष में यह बात जरूर रही थी कि उन्हें सिर्फ तीन महीने ही खाली रहना पड़ा था और वह खंडूडी की तरह करीब ढाई साल सिर्फ विधायक की भूमिका में नहीं रहे थे।
वर्ष 2012 में कांग्रेस सरकार आई तो विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने। मगर केदारनाथ आपदा के बाद पैदा हुई स्थितियों में 2014 में उनकी कुर्सी भी चली गई। सरकार के बचे हुए कार्यकाल में वह सिर्फ सितारगंज विधायक बनकर ही रहे। न कांग्रेस में रहते हुए उनका सियासी पुनर्वास हो पाया और न ही 2016 में भाजपा में शामिल होने के बाद आज तक उनके लिए कोई ठोस भूमिका तय हो पाई। राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय नित्यानंद स्वामी भी ऐसे अनुभव से गुजरे थे, जबकि 2001 में उन्हें हटाकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। हालांकि बहुत कम दिनों के लिए ही स्वामी को सिर्फ विधायक रहना पड़ा था। कोश्यारी और हरीश रावत के साथ ऐसे अनुभव नहीं रहे, क्योंकि जैसे ही उनका कार्यकाल खत्म हुआ, विधानसभा के चुनाव हो गए। दोनों के संबंध में ही यह समानता रही कि उनकी उनके कार्यवाहक मुख्यमंत्री रहते हुए सत्ता में वापसी नहीं कर पाई।