कितना तैयार है उत्तराखंड 2013 जैसी आपदा के लिये?

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केदारनाथ आपदा

16 जून 213 उत्तराखंड के इतिहास में कभी न मिटने वाली भयावह यादें दे कर गई है। इस प्राकृतिक आपदा के 4 साल गुजरने के बाद लरकारों और राजनेताओं ने वादे और बातें तो तमाम की हैं लेकिन सवाल ये है कि प्रदेश 2013 जैसी आपदा के लिये वास्तविक तौर पर कितना तैयार है? पर्यावरणविद राजेंद्र सिंह जिन्हें भारत के ‘वाॅटरमेन’ के नाम से भी जाना जाता है  कहते हैं कि उत्तराखंड 2013 की तरह एक और आपदा की ओर इशारा कर रहा है। केदार बाढ़ की चौथी वर्षगांठ की संध्या पर एक संवाददाता सम्मेलन में  मैगसेसे अवाॅर्राड विजेता सिंह ने कहा कि “मैं यह देख के परेशान हूं कि केदारनाथ त्रासदी से कोई सबक नहीं सीखा गया है। मैंने एक पखवाड़े से भी कुछ समय पहले केदारनाथ बाढ़ की भविष्यवाणी की थी, और मुझे यह चिंता है कि अनियंत्रित शहरी विकास जो बाढ़ का कारण था वह, फिर भी निरंतर जारी है, जो इसी तरह की एक और त्रासदी के लिए रास्ता बना रहा है।”

उन्होंने कहा कि “बाढ़ से 20 दिन पहले, उन्होंने इस क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि केदारनाथ से निचले मैदानों तक सभी तरह के सुरंगों का निर्माण किया गया था, जिसके आसपास भारी मात्रा में मलबा जमा हुआ था। जब यहां बारिश शुरू हुई, तो सारा मलबा नदी के पानी के साथ मिल गया जिससे इसकी मात्रा बहुत ज्यादा हो गई जो आपदा का कारण बना,” सिंह कहते हैं कि “मैंने यह दावा किया था कि बाढ़ आएगी, लेकिन मुझे यह बिल्कुल नहीं पता था कि यह इतनी भयावह होगी और इतने बड़े पैमाने पर जान माल के नुकसान का कारण बनेगा।”

केदारनाथ आपदा वास्तव में विकास के मॉडल पर सवाल उठाते हैं जो हमारे शहरों में चल रहे हैं, जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए कोई भी विचार नहीं करते हैं। ऐसे मॉडल केवल विनाश, विस्थापन, बाढ़ और सूखे का कारण बन सकते हैं, और कुछ नहीं। भविष्य में आपदाओं को कैसे टाला जा सकता है विषय पर, सिंह ने कहा कि महत्वपूर्ण बात यह सुनिश्चित करना कि बाढ़ के मैदानों में पर्याप्त वनस्पति हो और वहां कोई निर्माण नहीं किया जा रहा हो।

“उत्तराखंड सरकार को पर्यटन और पर्यावरण संरक्षण के बीच तालमेल बिठाना होगा। इसके अलावा प्लास्टिक की मात्रा को प्रतिबंधित करना होगा जो पर्यटक उनके साथ ले आ रहे हैं। प्लास्टिक जो नदियों में फेंक दी जाती है उसकी मात्रा धीरे-धीरे काफी बढ़ जाती है।” सिंह का कहना है कि प्राकृतिक आपदाऐं आगे भी आयेंगी और इन को रोक पाना किसी के लिये मुमकिन नहीं है लेकिन अगर राज्य को इनसे कम से कम नुकसान के लिये तैयार करना है तो राजनीतिक इच्छा शक्ति दिकानी होगी। केवल और केवल प्राथमिकता पर्यावरण को बचाने पर रखनी होगी। जब तक सरकार और आम लोग ये नहीं करते तब तक उत्तराखंड को आपदा के लिहाज से एक टाइम बं मानना चाहिये।