उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के हर्षिल का सेब भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी खूब पसंद किया जाता है। अपनी गुणवत्ता की वजह से इसने अब अन्य विदेशी बाजारों के साथ ही अमेरिकी बाजार में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। पिछले चार दशक में इस इलाके में सेब की काश्त करने वाले लोग विशेषज्ञता हासिल कर अब इससे अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।
यहां के काश्तकार माधवेन्द्र बताते हैं कि 1978 में इस इलाके में भयंकर बाढ़ आयी, जिसमें बहुत तबाही हुई। उस वक्त तक कुछ लोग ही सेब की बागवानी करते थे। जो सेब होते भी थे, वह केवल अपने परिवार के लिए ही होते थे। बाढ़ से उबरने के बाद आर्थिक तौर पर टूट चुके लोगों ने देखा कि झाला गांव के राम सिंह के बाग का सेब भारतीय सेना ने दस हजार रुपए में खरीद लिया। उस समय दस हजार रुपये बड़ी रकम होती थी। इस सौदे की चर्चा चौतरफा फैल गई। बस तब से लोगों ने सेब की बागवानी व्यावसायिक रूप से शुरू की और अगले दस सालों में यहां के बाशिंदों की किस्मत ही बदल गयी। आज यहां का सेब अमेरिका समेत कई अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बिकता है। सेब का अच्छा उत्पादन होने के चलते 2017 में सरकार ने झाला में 1200 मीट्रिक टन क्षमता का कोल्ड स्टोरेज स्थापित किया है, जिसमें काश्तकार अपना सेब बिकने तक रख सकता है।
गांव से पलायन पर लगा विराम
उत्तराखंड में पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 800 गांव ऐसे हैं, जहां पलायन के कारण गांव लगभग खाली हो चुके हैं। इसका मुख्य कारण है कि पर्वतीय क्षेत्रों में मौजूद गांवों में स्थानीय रोजगार न होना। इस कारण युवा नौकरी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन कर जाते है। बाद में उनका पूरा परिवार ही साथ चला जाता है और गांव में उनके घरों में हमेशा के लिए ताले लग जाते है लेकिन हर्षिल के इन गांवों के युवा पलायन नहीं करते।
हर्षिल के युवा काश्तकार गौरव रावत बताते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने पलायन नहीं किया, बल्कि सेबों की बागवानी को नई तकनीक से पोषित करना जारी रखा। आज सेब की अच्छी कीमत मिलने के कारण उनके दो-दो रिसोर्ट हर्षिल में है। हर्षिल के ही काश्तकार माधवेन्द्र सिंह बताते है सेब से अच्छी आमदनी होने के चलते आज कई किसानों ने बड़े होटल भी खोल लिये हैं। समाज सेवक गोविंद सजवाण बताते हैं कि इसका मुख्य कारण है सेब के बगीचों से अच्छी आमदनी होना। इसके कारण यहां का युवा अपनी पिछली पीढ़ी से और अधिक उम्दा तकनीक के जरिये सेब उगाने पर ध्यान दे रहे हैं।
सेब में उत्तराखंड का तीसरा नंबर
भारत में तीन राज्यों में सेब का उत्पादन होता है। इसमें कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड है। नॉर्थ ईस्ट के भी कुछ राज्यों में सेब होता है लेकिन वो बहुत कम है। कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सबसे ज्यादा सेब जम्मू कश्मीर में होता है। भारत का कुल 24 लाख टन सेब उत्पादन का 60 फीसद कश्मीर में होता है। उसके बाद हिमाचल का नंबर आता है, जहां हर साल ढाई करोड़ पेटी सेब देश और विदेश की मंडियों में जाता रहा है। उसके बाद उत्तराखंड हैं। जहां मुख्य रूप से चार जिलों देहरादून, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा और नैनीताल में सेब के बगीचे हैं। इनमें सबसे ज्यादा उत्तरकाशी की हर्षिल सेब पट्टी में है।
कभी अंतरराष्ट्रीय व्यापार से समर्थ थी ये बेल्ट
दशकों पहले हिमालयी दर्रों से गुजरने वाले परंपरागत मार्गों से भारत-तिब्बत और चीन के बीच व्यापार होता था। यही व्यापार पहाड़ों व सीमांत गांवों की अर्थव्यवस्था की धुरी होती थीलेकिन परंपरागत मार्ग बंद होने से अब स्थानीय उत्पादों का व्यापार भी सिमट गया है। भारत और तिब्बत के सीमावर्ती गांवों के लोग वस्तु विनिमय की पद्धति से अपनी जरूरत के सामान के लिए एक दूसरे के क्षेत्र में आते जाते थे। तिब्बती व्यापारी सोना, चांदी, मूंगा के गहने, घी, नमक, पशमीना ऊन, सुखाया हुआ चुल्लू, घोड़े, भेड़-बकरियां, याक व चैंर गाय लेकर भारत की ओर हर्षिल, बगोरी, नागणी तक आते थे। यहां से ग्रामीण बकरियों की पीठ पर लादकर मंडुआ, जौ का पिसा हुआ आटा, सत्तू, रामा सिराईं पुरोला का लाल चावल, गुड़, दालें समेत अन्य सामान तिब्बत ले जाते थे।
परंपरागत मार्गों से होने वाले इस व्यापार से दूरस्थ गांवों के लोगों की जरूरत पूरी होती थी और आमदनी का भी एक बड़ा साधन था। किसी जमाने में उत्तरकाशी क्षेत्र में भारत और तिब्बत के बीच 5,830 मीटर की ऊंचाई वाले थागला-1 दर्रे से व्यापार होता था। भारत की ओर से हर्षिल और मुखबा गांव से करीब पांच किमी ऊपर नागणी बाजार एवं सीमा पर मंडी तथा तिब्बत में सारंग कबरथ व्यापार की प्रमुख मंडियां थीं। तिब्बत से याक तथा भारत से बकरियों की पीठ पर सामान ढोकर सीमावर्ती क्षेत्र में बर्फबारी और बरसात के महीनों को छोड़कर साल के शेष सात महीने तक व्यापार चलता था। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद ये व्यापार बंद हो गया।
हर्षिल का इतिहास
हर्षिल ‘पहाड़ी’ विल्सन, या राजा विल्सन की कथा के लिए लोकप्रिय था। विल्सन, एक साहसी अंग्रेज था। विल्सन ब्रिटेन में कहां का रहनेवाला था और गढ़वाल कैसे पहुंचा, इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। कहा जाता है कि वह ब्रिटिश आर्मी छोड़कर भागा था और छुपने के लिए गढ़वाल के दूरदराज इलाके में भागीरथी नदी किनारे बसे एक गांव हर्षिल में उसने अपना डेरा जमाया और वहीं का होकर रह गया। हर्षिल गांव वही जगह है, जहां राजकपूर के ‘राम तेरी गंगा मैली’ की शूटिंग हुई थी। इसी हर्षिल में वह झरना है, जिसमें मंदाकिनी के नहाने का दृश्य फेमस है। इस झरने का नाम भी अब मंदाकिनी झरना पड़ गया है। विल्सन ने 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद ब्रिटिश सेना को छोड़ दिया। वह गढ़वाल से बच निकला और शरण मांगने के लिए टिहरी के राजा से मुलाकात की लेकिन राजा अंग्रेजों के प्रति वफादार था और विल्सन को समायोजित करने से इनकार कर दिया। विल्सन पता लगाने से बचने के लिए पहाड़ों में चले गए। भाग्य ने उन्हें भागीरथी नदी के तट पर एक सुदूर खूबसूरत गांव हर्षिल में उतारा, जिसमें दोनों तरफ घने देवदार के ढलान थे। विल्सन ने गुलाबी के नाम से एक बहुत खूबसूरत पहाडी लड़की से विवाह किया। फिर विल्सन ने लंदन स्थित कंपनी के साथ अनुबंध में प्रवेश किया और खाल, फर और कस्तूरी के निर्यात से भाग्य बनाया।
यही वह समय था जब अंग्रेजों ने भारत में रेलवे का निर्माण किया था और रेल के लिए गुणवत्ता वाले लकड़ी के स्लीपरों की बड़ी मांग थी। विल्सन ने इस पर हमला किया और मैदानी इलाकों में नदी के नीचे तैरने वाले विशाल कट देवदार पेड़ भेजे। शुरुआत में, विल्सन ने अपने लॉगिंग व्यवसाय के लिए टिहरी-गढ़वाल के राजा से अनुमति नहीं ली थी लेकिन बाद में, उन्होंने राजा से लीज हासिल की, जिससे उन्हें लाभ में हिस्सा मिला। ऐसा कहा जाता है कि टिहरी के राजा का राजस्व दस गुना बढ़ गया। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि विल्सन एक अतिथि के रूप में था। ऐसा कहा जाता है कि समय के साथ, राजा विल्सन, जिसे तब तक जाना जाता था, ने अपनी खुद की मुद्रा को खारिज कर दिया और 1930 के दशक के अंत में, उनके सिक्के स्थानीय लोगों के साथ पाए गए। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, लकड़ी के व्यापार ने विल्सन को इतना अमीर और शक्तिशाली बना दिया था कि टिहरी-गढ़वाल का स्थानीय राजा अपने विषयों की रक्षा करने में असमर्थ था, जिन्हें विल्सन ने क्रूरतापूर्वक गुलाम बना दिया था।