उत्तराखंड में 18 साल बाद भी पलायन सबसे बड़ा दंश

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लुठियाग

देहरादून, उत्तराखंड राज्य निर्माण के 18 सालो का सफ़र पूरा हो चूका है और ये राज्य अब सतरहवे साल में प्रवेश कर रहा है। सवाल ये उठता है की इन 17 सालों के सफ़र में उत्तराखंड राज्य अपनी अवधारणा पर कितना खरा उतरा? क्या आज भी पहाड़ का युवा पलायन का दंश झेलने से बच पाया है? राजधानी की सड़के रोज नए आन्दोलन से क्यों जाम रहती है? रोज़गार और विकास अभी पहाड़ से दूर क्यों है?

उत्तराखंड का एक बड़े राज्य जनांदोलन के रूप में हुआ, यहाँ की आम जनता उत्तर प्रदेश में रहते हुए विकास और रोज़गार के लिए संतुस्ठ नहीं हो पा रही थी। रोज़गार और पहाड़ का विकास यहाँ की सबसे बड़ी जरुरत थी , एक लम्बे जनसंघर्ष के बाद आखिरकार 9 नवम्बर 2000 को राज्य का निर्माण हो गया। अब तक के 17 सालो के सफ़र में भी उत्तराखंड क्या जन भावनाओ पर खरा उतरा ये सवाल आज भी लोगो के मन को कचोटता है।

राज्य आंदोलन में अपने गीतों के माध्यम से जनता के दिलों में राज्य निर्माण की एक ज्योति जलाने वाले जनकवि अतुल शर्मा का कहना है कि, “सपनों का उत्तराखंड अभी बहुत दूर है पिछले 18 सालों में जो विकास पहाड़ के अंतिम गांव से शुरू होना था, वह आज भी बाट ही जो रहा है। हमारी जन भावना की कोई कद्र किसी भी राजनीतिक दल को नहीं रही है। आज भी मन करता है कि सड़कों पर अपने गीतों के माध्यम से एक नई क्रांति की शुरुआत की जाए।”

वही है जन शुन्य हो चुके देहरादून से 30 किलोमीटर दूर गांव बखरोटी के प्रधान बुद्धि प्रकाश जोशी और उनकी दूसरी जनरेशन परमानंद जोशी भी ये मानते है कि, “आज भी पहाड़ विकास रोज़गार की बाट जोहते हुए पलायन की मार झेल रहा है। भाजपा और कांग्रेस और सभी छेत्रिय दल आज भी पहाड़ के पानी और पहाड़ की जवानी को नहीं रोक पाए है। छात्र शिक्षा के लिए पलायन कर रहे है,युवा रोजगार के लिए और रही राजधानी कि बात वो भी आज 18 सालो के सफ़र में राजनीती का शिकार हो गयी है,कर्मचारी से लेकर आम जनता सड़को पर हक़ कि मांग कर रही है।

उत्तराखंड के 16 सालो के सफ़र जहा मैदान विकास की नयी इबारत लिख रहे वाही अनियोजित विकास और दूरदर्शिता की कमी ने उत्तराखंड के पहाड़ पर अभी तक विकास की कोई भी ठोस उम्मीद नहीं जगाई ,आशा करते 19 साल पुरे होते होते तस्वीर कुछ बदलेगी।