वन गूर्जरों को जंगलों से निकालने के हाईकोर्ट के निर्णय ने गूर्जरों में हलचल

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ऋषिकेश। समाजवादी लोक मंच के सह संयोजक मुनीष कुमार ने वर्षों से उत्तराखंड के जंगलों में रह रहे वन गूर्जरों को लेकर उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्बारा भाजपा सांसद की याचिका पर दिए गए फैसले पर आपत्ति जताते हुए कहा कि यह उत्तराखंड सरकार के अपने ही कानूनों के न सिर्फ खिलाफ है, बल्कि संवैधानिक अधिकारों का भी धज्जियां उड़ाने वाला हैमुनीष कुमार का कहना है कि उत्तराखंड के उच्च न्यायालय द्वारा वन, वन्यजीव एवं पर्यावरण को लेकर हिमालय युवा ग्रामीण संस्थान की जनहित याचिका पर सुनवाई जारी है। उच्च न्यायालय वर्ष 2012 से चल रही इस जनहित याचिका में ग्रामसभा ढिकुली, पीपुल्स फार एनिमल की गौरी मौलेखी व भाजपा राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी भी पक्षकार बने हुए हैं। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजीव शर्मा व न्यायाधीश लोकपाल सिंह की संयुक्त पीठ इन सभी पर एक साथ सुनवाई कर रही है।
जनहित याचिका पर चल रही सुनवाई में न्यायपालिका का रुख आश्चर्यचकित कर देने वाला है। ऐसा महसूस किया जा रहा है कि भाजपा सरकार अपना एजेन्डा न्यायपालिका के माध्यम से आगे बढ़ा रही है। वन एवं पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर उत्तराखंड की क्षेत्रीय जनता के रोजगार एवं हक-हकूक को ताक पर रख दिया गया है। सुनवाई करने वाली पीठ फैसले सुनाते वक्त शायद यह भूल गयी है कि उत्तराखंड में वन्य जीवों, जंगलों, पहाड़ व नदियों के साथ-साथ इंसान भी रहते हैं और इंसानियत को खदेड़ कर पर्यावरण बचने वाला नहीं है।
पिछले माह न्यायपालिका ने जिन 44 रिजोर्ट ने वन भूमि व नदी के किनारों पर अतिक्रमण किया था, उसे हटाने का आदेश दिया था जिसका स्थानीय आबादी ने स्वागत किया था। परन्तु विगत 9 अगस्त व 16 अगस्त को उच्च न्यायालय के अन्तरिम फैसलों ने जनता को भय, शंका एवं आक्रोश से सराबोर कर दिया है। न्यायपालिका ने अपने आदेश में राजाजी नेशनल पार्क व कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों को लेकर जाने वाली जिप्सियों की संख्या 100 तक सीमित कर देने, पालतू हाथियों के व्यवसायिक इस्तेमाल पर रोक लगाने व कार्बेट पार्क, राजाजी नेशनल पार्क व सीतावनी जोन में निजी वाहनों पर रोक लगाए जाने आदि के आदेश दिए हैं। न्यायालय के निर्देश पर जिनके पास से पालतू हाथी मिले हैं, उनके खिलाफ वन महकमे द्वारा एफआईआर दर्ज कर दी गयी है।
कार्बेट नेशनल पार्क व राजाजी नेशनल पार्क में भ्रमण करने के लिए देश व दुनिया के कौने कौने से पर्यटक आते हैं। पर्यटन क्षेत्र की जनता के लिए रोजगार का एक जरिया रहा है। न्यायालय के इस आदेश से एक ही झटके में हजारों लोगों के सामने रो-रोटी का संकट पैदा हो गया है। लोगेो का कहना है कि जब पर्यटकों को जंगल में घूमने व हाथी की सवारी करने का अवसर ही नहीं मिलेगा तो वे यहां पर क्यों आएंगें। न्यायालय के इस आदेश से रिजोर्ट में काम करने वाले 15 हजार कर्मचारियों, जिप्सी चालकों, मालिकों नेचर गाइडों समेत हजारों लागों के रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
उच्च न्यायालय का आदेश वनवासियों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है। न्यायपालिका ने राज्य सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव रणवीर सिंह द्वारा 57 गूर्जर परिवारों को 0.8 हैक्टेअर भूमि देने व 10 लाख रु. की आर्थिक सहायता दिऐ के पुर्नवास के प्रस्ताव को खरिज करते हुए फटकार लगायी है तथा दो रेंजरों को सस्पेन्ड करने का आदेश भी दिया है। इतना ही नहीं सदियों से वनों पर आश्रित वन गूजरों को वन्य जीवों को नुकसान पहुंचाने वाला करार देते हुए अतिक्रमणकारी घोषित कर दिया है।
वन गुजरों के बारे में न्यायालय में दाखिल अनिल बलूनी द्वारा दायर की याचिका के पैरा सं. 5 बी में कहा गया है कि वन गूर्जर 100 वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर से तराई भावर में आए थे।
सुप्रीम कोर्ट के वकील रविंद्र गड़िया का कहना है कि भाजपा सांसद अनिल बलूनी और वन गूर्जरों के मुसलमान होने का संज्ञान भी जैसे न्यायालय ने लिया हो। वनवासी अधिकार कानून के जरिए लंबे समय के संघर्ष के बाद वनवासियों और वनों के सहजीवन, सहअस्तित्व और परस्पर निर्भरता को मान्यता मिली, मगर इन्हीं वनवासी वन गूर्जरों के वनों के साथ पारस्परिक रिश्ते को नजरअंदाज कर वन गूजरों को अतिक्रमणकारी देने से अधिक क्रूर कानून की स्पष्ट अवहेलना का उदाहरण शायद ही देखने को मिले। पूर्व अध्ययन और उत्तर प्रदेश-उत्तराखण्ड सरकारें साफतौर पर बिना वनाधिकार कानून के अस्तित्व में आए भी वन गूर्जरों के अधिकारों को मान्यता न मिलने को ऐतिहासिक अन्याय और भूल मान इनके पुनर्वास की जरूरत को रेखांकित कर चुकी हैं। ऐसे में यदि न्यायालय इतिहास, अध्ययन, सरकारी दस्तावेज, पारस्परिक अधिकारों को दरकिनार कर वन गूजरों को अतिक्रमणकारी अपराधी कह सरकार-प्रशासन पर उन्हें तुरंत खदेड़ने का दबाव बनाता दिखता है तो यह निश्चित ही किसी न्यायिक या चिंतन का नतीजा कम, वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान की मुस्लिम विरोधी या बांग्लादेशी भगाओ किस्म की मुहिम जैसी विचार प्रक्रिया ज्यादा प्रतीत होगी। न्यायपालिका का रुख भाजपा/आरएसएस के करीब सोच रखने वाला दिखे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
उन्होंने कहा कि वनाधिकार कानून 2006 देश के वनों में 3 पीढ़ियों से वनों में रहने वाले वनवासियों को 4 हैक्ट. भूमि पर मालिकाना हक तथा आसपास की वन उपज पर सामूहिक मालिकाने का अधिकार देता है ऐसे में न्यायालय द्वारा वन गूजरों को अतिक्रमणकारी घोषित किया जाना देश के स्थापित कानूनों का उल्लंघन है।

क्या कहती है भाजपा सांसद अनिल बलूनी की याचिका
याचिकाकर्ता और भारतीय जनता पार्टी सांसद अनिल बलूनी ने अपनी याचिका में वन गूर्जरों को वनों एवं वन्य जीवों के लिए घातक बताया है। इसके लिए उन्होंने वन गूर्जरों के खिलफ दर्ज 4 मुकदमों का जिक्र भी किया है। उन्होंने अपनी याचिका के पैरा सं 4 सी में कहा है कि राजाजी नेशनल पार्क व कार्बेट पार्क के बाहरी व भीतरी क्षेत्र में कुल मिलाकर एक हजार से भी अधिक वन गूजर परिवार रहते हैं।
गौरतलब है कि इनमें से मात्र 4 मामले ही अभी तक वन एवं वन्य जीवों के खिलाफ अपराध में वन गूर्जरों के खिलाफ दर्ज किए गये हैं। मात्र 4 मामलों को उठाकर समूचे वन गूजर समुदाय को अपराधी व अतिक्रमणकारी बता देना न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है। इससे पूर्व भी दिनांक 19 सिम्बर, 2016 को उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि वन भमि पर बसे वन गूजरों को सरकार वनों के भीतर से एक वर्ष की समय सीमा में बाहर करे। उत्तराखंड उच्च न्यायालय के इस आदेश पर फिलहाल देश की सर्वोच्च अदालत ने रोक लगा दी है। इस रोक के बावजूद उच्च न्यायालय द्वारा पुनः वन गूजरों को हटाने की बात कहना कानून के जानकारों की समझ से भी परे है।
अनिल बलूनी ने याचिका में ग्राम सुन्दरखाल के निवासियों को भी अतिक्रमणकारी व मानव वन्य जीव संघर्ष के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें हटाए जाने के लिये प्रार्थना की है। अपने अन्तरिम आदेशों में सुन्दरखाल के 1800 निवासियों को हटाने को लेकर न्यायपालिका ने कोई बात नहीं कही है। याचिका का हिस्सा होने के कारण देर-सवेर सुन्दरखाल को लेकर भी न्यायालय कोई फैसला अवश्य सुनाएगा। सुन्दरखाल के निवासी भी न्यायपालिका के रुख को लेकर सहमे हुए है।

क्यों हो रहा है फैसले का विरोध
न्यायालय के उक्त फैसलों पर जनता का प्रतिरोध स्वभाविक था। आदेश से प्रभावित लोगो ने अपनी रोजी-रोटी की सुरक्षा को लेकर राज्य सरकार से मदद की गुहार लगाई तथा जुलुस-प्रदर्शन शुरू कर दिया।
16 अगस्त के अपने अन्तरिम आदेश ने न्यायपालिका ने प्रभावित जनता के अपने आदेश को लेकर जारी धरना-प्रदर्शन, जुलूस आदि को खतरनाक ट्रेंड बताते हुए प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया है। तथा प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों को न्यायालय के आदेशों के खिलाफ धरना,प्रदर्शन जुलुस न हो, इसके लिए निर्देशित किया है।
मुनिष कुमार का कहना था कि देश का संविधान देश के नागरिकों को शोषण के खिलाफ बोलने व संगठित होने का अधिकार देता है। न्यायलय के उक्त फैसलों के खिलाफ जनता मे बैचनी है। राज्य व राजधानी दिल्ली के कई जनपक्षधर संगठन व बुद्धिजीवी सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने तथा आंदोलन की तैयारी कर रहे है। इसकी रणनीति बनाने के लिए जल्द एक बैठक की तैयारी की जा रही है।