यहां जाने के लिए रखनी पडती है जान हथेली पर

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    उत्तराखंड
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    देश की नेपाल और चीन सीमा से लगे सीमांत क्षेत्र जैसे पिथौरागढ़ में कागजी विकास के लंबे-चौड़े दावे होते हैं। इन दावों की हकीकत गोरी नदी घाटी में देखने को मिलती है। जहां आज भी गोरी सहित उसकी सहायक नदियों को पार करने के लिए कच्चे झूलापुल और जानलेवा गरारियां ही बनी हैं। सचाई तो यह है कि डोलने वाले झूला पुल और जानलेवा गरारिया दर्जनों गांवों की लाइफ लाइन हैं।

    विश्व प्रसिद्ध मिलम ग्लेशियर से निकलने वाली विशाल गोरी नदी और उसकी सहायक नदियां तिब्बत सीमा से लगे क्षेत्र में जनजीवन को थर्राती रहती हैं। ग्रीष्मकाल में जब बर्फ पिघलती है तो सभी नदियों का जल स्तर बढ़ जाता है। मानसून काल में तो ये नदियां विकराल रूप धारण कर लेती हैं। मिलम से लेकर जौलजीवी तक लगभग 132 किमी तक गोरी नदी के किनारे घनी बसासत है। नदी के पूर्वी छोर की तरफ जहां बाजार, विद्यालय सहित अन्य उपक्रम हैं तो पश्चिमी छोर पर बड़े-बड़े गांव हैं। कुछ गांवों की तो स्थिति यह है कि खेत भी नदी के दूसरी तरफ हैं। इसके चलते ग्रामीणों को रोज नदी के दूसरी तरफ जाना पड़ता है।

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    विकास का सच यह है कि जौलजीवी से लेकर मिलम तक 132 किमी की दूरी पर मात्र तीन मोटर पुल जौलजीवी, कौली और मदकोट में हैं। जौलजीवी से कौली की दूरी 15 किमी जबकि कौली से मदकोट की दूरी 30 किमी है। इसके अलावा गर्जिया में सौ साल पुराना झूला पुल, चामी, बंगापानी में झूला पुल हैं। हुड़की, आलम, फगुवा और बसंतकोट के पास गरारी हैं। जो सभी क्षतिग्रस्त हैं। इन गरारियों से आर-पार करने में प्रतिवर्ष कई लोग जानें चली जाती हैं। इसके अलावा उच्च हिमालय में भी गोरी नदी पर कच्चे पुल हैं, जो प्रतिवर्ष शीतकाल में हिमपात से तो मानसून काल में नदी के प्रवाह से बह जाते हैं।

    मानसून के चार माह में गोरी नदी घाटी के दर्जनों गांवों का शेष जगत से संपर्क भंग हो जाता है। स्कूली बच्चों का विद्यालय जाना बंद हो जाता है। इन गांवों के लिए बनी लाइफ लाइन खुद ही बीमार है।