उत्तराखंड के आने वाले पांच सालों के शासक का फैसला 15 फरवरी को ईवीएम मशीनों में बंद हो जायेगा। आने वाले चुनाव में क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा फिलहाल जो एक बात चुनाव से पहले देखने को मिल रही वो है नेताओं का दल बदलना। इस परिस्थिती में एक ही बात ज़हन में आती है “तुम तो ठहरे दलबदलू देश क्या चलाओगे”। जी हां उत्तराखंड चुनाव तो दल बदलते नेताओं का अखाड़ा बन चुका है। कभी कोई भाजपा का कमल खिला रहा है तो कोई कांग्रेस का हाथ पकड़ रहा है। इन सबके बीच कोई भी वोटर की मानसिकता नहीं समझ रहा है। सालों साल एक पार्टी की सेवा और प्रचार करने के बाद चुनाव से ठीक एक महीना पहले अपनी पार्टी बदल कर दूसरी पार्टी में शामिल होना शायद आजकल का फैशन हो गया है। कभी जो नेता एक पार्टी का चेहरा और पहचान था उसके पार्टी बदलते ही वह भ्रष्टाचारी और गलत हो जाता है? जो प्रत्याशी कभी एक पार्टी के लिए सारे बेहतर कदम उठाता था दूसरी पार्टी में जाकर पहली पार्टी के तौर तरीको पर सवाल उठाता है? हमारे देश की राजनिती क्या सिर्फ सवालों-जवाबों,आरोप-प्रत्यारोप और एक दूसरे पर उंगली उठाने के लिए है। सवाल यह है कि चुनाव को अब एक पुरा महीना भी नहीं बचा और पार्टियां एक दूसरे की टांग खिंचाई से बा़ज नही आ रहे हैं।
प्रदेश की दो बड़ी पार्टियां एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी हुई है,अपनी उपलब्धियों से ज्यादा दूसरों की कमिया गिनाने में दोनों पार्टियां मुकाबला कर रही हैं। आधे से ज्यादा सभाओं में पार्टी के लोग इस बात से परेशान है कि दूसरी पार्टी ने यह घोषणा कैसे कर दी? कोई भी पार्टी इस बात को नहीं सोच रही कि उन्हें अपनी योजनाओं पर ध्यान देने का समय निकालना चाहिए और जितना हो सके जनता से मुखातिब होने के विषय में सोचना चाहिए। जनता की इच्छाओं को जानने के बाद य़ोजनाएं बना कर,उसपर काम करना सभी पाटिर्यों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। यह आरोप प्रत्यारोप शायद हर राजनितिज्ञ जानता है और इन कामों के लिए नेताओं के पास बहुत समय है और आगे भी होगा। अभी इन उम्मीदवारों के समय की दरकार जनता को है जिनसे बातचीत करने के बाद ही शायद नेताओं को अपनी जनता को जानने का मौका मिलेगा,ऐसे में जनता की मंशा जानने के बाद कोई भी पार्टी ज्यादा अच्छा काम कर पाएगी,अगर उनकी सरकार बनती है।
विधानसभा चुनाव केवल नेताओं क लिए नहीं बल्कि जनता के लिए भी महत्तवपूर्ण है क्योंकि जनता भी अपनी समझ से एक ऐसा प्रतिनिधि चाहती है जो अपने वादों पर अडिग रहे और भविष्य में अच्छे काम कर सके।जनता के मन में इस बात का संदेह है कि अगर एक नेता उस दल का नही हुआ जहां से उसे मान-सम्मान मिला है तो वह जनता के क्या होगा? चुनाव से पहले जब इन नेताओं ने दल बदल लिया तो क्या गारंटी है कि चुनाव जीतने के बाद यह नेता अपने वादों पर खरा उतरेंगें! इन सभी सवालों के साथ यह चुनाव नेताओं के साथ जनता के लिए भी बहुत जरुरी है। जहां प्रदेश के नेता एक दूसरे पर इल्जाम लगा रहें वही अगर वह अपना समय जनता से मिलने में और उनकी मंशा जानने की कोशिश करने में लगाऐंगें तो फायदा शायद नेता और पार्टी दोनो को ही मिलेगा।चुनाव से कुछ दिन पहले जनता के सामने भी पार्टियों का चिट्ठा खुलने से नुकसान तो दोनों ही पार्टी को हो रहा है। पार्टियों की इस उठा पटक में जनता भी अपना कैंडिडेट फिल्टर कर रहीं और समझने की कोशिश कर रही कि असल में उनके लिए कौनसी पार्टी फायदेमंद है और कौन सिर्फ वादों के राजा है। समय कम है लेकिन दूर नही जब सबके सामने जनता का प्रतिनिधि होगा।