मैं बहुत छोटी जब मैं पहली बार अपने गांव कबील्था जो की रुद्रप्रयाग में है, वो भी एक छोटे से ट्रिप के लिए हरिद्वार जा रहे थे जो मुझे बहुत दूर लगा, आज बेला रेमिनिसेन्सेस के बाहर खड़ी हैं सर्दियों का मजा लेते हुए मसूरी हैनिफ्ल सेंटर में 16 दिन का ट्रेक लीडर कोर्स अभी खत्म कर रहीं हैं। बेला बी.ए फर्स्ट ईयर की छात्रा हैं, वो अपने वाले कोर्स के लिए नर्वस भी हैं और एक्साइटेड भी हैं, वो जानते थी की उनके पिता जी थोड़े चिंतित भी हैं क्योंकि उनकी पहली बेटी इससे पहले कभी घर से दूर नहीं रही। सच तो यह था की 14 लोगों की टीम में वो केवल दो लड़कियां थीं लेकिन जब मेरे पापा ने मेरा उत्साह देखा वो मान ही गए।
जब वह पीछे की जिंदगी देखती हैं तो बेला खुश हैं की वो आई। मैं एक अलग इंसान हूँ अब, मैं अब ज्यादा कान्फिडेन्ट हूँ। मैंने सिर्फ सरवाइवल नहीं सिखा मैनें मर्दों के साथ मुकाबला भी किया है। मैं अपना करियर एडवेंचर में बनाने के बारे सोचने लगी हूँ।
यह कोर्स हर जेंडर में कान्फिडेंस को बढ़ावा देने के लिए, जीविका के लिए, समाज में हर किसी को मौका देने के लिए, बेला जैसै युवा लोगों के लिए एक मिसाल है। आई.डी.आई.पी.टी (इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट इवेस्टमेंट प्रोग्राम फार टूरिज्म) उत्तराखण्ड टूरिज्म डेवलेपमेंट बोर्ड ने हनफिल सेंटर, की मदद से वुडस्टाक स्कूल मसूरी में 16 दिन का ट्रैक लीडर कोर्स का आयोजन करवाया।
यह प्रायोजित कोर्स दो इंटरनेशनल सर्टिफिकेट के साथ है जो दो साल के लिए वैध है जो इस कोर्स पर चार चांद लगा रहा।यह कोर्स अलग अलग पड़ाव और अलग लोकेशन जैसे की पहले पांच दिन मसूरी के हैनिफ्ल सेंटर में, उसके बाद रुद्रप्रयाग के सात अलग अलग गांवों में, उत्तरकाशी और फिर जिला चमोली में। ट्रेनिंग कोर्स में, प्राथमिक चिकित्सा, सी पी आर, ट्रैकिंग के साथ कैंप के सभी उपकरण का सही इस्तेमाल सिखाया जाता है।
भले ही यह कोर्स छोटा है, इसका करारापन युवा वर्ग के दिमाग तक जाता है। जैसा की रवि डोगरा, बगरोई के कालेज के फाइनल ईयर के छात्र बताते हैं कि इस कोर्स ने कई तरीकों से उनकी आंखे खोल दी जैसे की कैसे प्लास्टिक बैग पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है, कैसे जब हम ट्रैकिंग पर जाते हैं तो यह सिखते हैं कि अपने पीछे कोई निशान नहीं छोड़ना चाहिए। वैसे तो मेरा ट्रैंकिंग अनुभव काफी रहा है लेकिन एक गाईड की तरह इस अनुभव ने मुझे प्रोफेशनली मजबूत बना दिया है और आगे मैं इस क्षेत्र में अच्छा कर पाऊंगा।
इस तरह की कोशिशों के जरिएं पहाड़ों से शहर की तरफ अपनी आजिविका की तलाश में होने वाले इमाइग्रेशन को रोका जा सकता है। इस कला का लंबा भविष्य है और यह बेला और रवि जैसे युवाओं को पहाड़ में रह कर अपनी जिंदगी जीने का मौका देती है।