उत्तराखंड: 21वां स्थापना दिवस, क्या खोया क्या पाया?

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उत्तराखंड

एक युवा की तरह ही उत्तराखंड अब अपने 21वें स्थापना दिवस पर उत्साह से भरपूर, नए विचारों से ओतप्रोत, नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है। जल, जंगल और जवानी की जिस लड़ाई को उत्तराखंड की जनता ने लड़ा था , आज बड़ी पार्टियों से अपने को ठगा सा महसूस कर रही हैं। सारे मुद्दे अब बीजेपी और कांग्रेस क़े लिए गौण हो गए हैं । राजधानी पहाड़ में होकर देहरादून में ही सजी हुई हैं, और निकट भविष्य में इस दुल्हन क़े पहाड़ में जाने की संभावना भी नहीं दिखती हैं । राजनैतिक तौर पर अगर उत्तराखंड को देखते हैं तो राजनैतिक अपरिपक्वता ने इस प्रदेश को गंभीर जख्म दिए हैं। 

बीजेपी की तरफ से अब तकमुख्य मंत्री राज्य को मिले हैं। दुर्भाग्य से एक भी  मुख्यमंत्री अपना का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। देखना यह होगा कि बर्तमान मुख्यमंत्री प्रचंड बहुमत क़े बाद  अपना कार्यकाल पूरा कर सकते है या नहीं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस क़े दिवंगत नेता नारायण दत्त तिवारी ही अब तक एक मात्र मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्होंने एकछत्र 5 साल उत्तराखंड में राज किया। इस दौरान अगर कहा जाय तो राज्य में वास्तविक बिकास का बुनियादी ढांचा तैयार हुआ। कांग्रेस ने भी उन्ही नेताओं को सत्ता की बागडोर सौंपी जो कभी उत्तराखंड क़े धुर विरोधी हुआ करते थे। दुर्भाग्य से राज्य में तीसरी राजनैतिक शक्ति का ना उभारना भी इन पुरानी पार्टियों क़े लिए वरदान साबित हुआ। 

अब तक जो भी मुख्यमंत्री बने सभी पहाड़ से बने हैं लकिन अपरिपक्वता क़े कारण पहाड़ क़े लिए कुछ नहीं कर सके। बेरोजगारी दिन प्रति दिन बढाती ही जा रही हैं। पलायन अपने चरम पर हैं, कुछ जिलों को अगर छोड़ दे तो उद्द्योगों की स्थिति ठीक नहीं हैं।आज भी कई दूर दर्ज क़े इलाको में डॉक्टर्स उपलब्ध नहीं हैं। स्कूलों में अध्यापक नहीं हैं, बिजली प्रदेश को आज भी दूसरे प्रदेशो से बिजली लेनी पड़ रही है। जंगलो क़े हालत यह हैं कि हर साल आग लगना आम बात हो गई हैं, जिससे जल संकट बढ़ता जा रहा है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। 

पहाड़ से पलायन का मुख्य कारण बेरोजगारी , जंगली जानवरो की बढाती तादाद हैं , मगर सरकारें हैं कि उन्हें सोचने क़े फुर्सत ही नहीं है। सबकुछ अपना होने क़े बाद भी खाली हाथ। विकास क़े नाम पर अगर कुछ हैं तो वह कुछ ही जिलों तक सीमित हैं।आल वेदर रोड, ऋषिकेशकर्णप्रयाग रेलवे लाइन, विकास की कुछ उपलब्धियों में गिनी जा सकती हैं। केदारनाथ के जख्मो को कैसे भूला जा सकता हैं, तो दूसरी तरफ हादसों से जूझने की अपरिपक्वता भी सामने गयी है। प्रकृति क़े प्रकोप ने इस घटना क़े बाद उत्तराखंड को दुनिया क़े मैप पर ला खड़ा कर दिया था। राज्य में अगर प्रति व्यक्ति सालाना आय आज 1 .73 लाख हो गई हैं जो कि 2002 – 03 में 10207 थी।

2011 से लेकर 2017 तक 734 गांव पूरी तरह से खाली हो गए हैं , इसके अलावा 565 गाऊं की जनसंख्या घटकर 50 फ़ीसदी ही रह गई हैं। सरकारें लाख दावे करे लेकिन सच्चाई जमीन पर नहीं दिख पायी है। वित्तीय घाटा (2018 -2019 ) का रुपये 6710.34 करोड़ का हो गया है। जो कि राज्य की जीडीपी का 2.75 प्रतिशत है। प्रदेश में बेरोजगार लोगो की संख्या लगभग 9 लाख है। मार्च 2018 तक यह संख्या 891141 थी। राज्य की स्वास्थ सेवा की अगर बात करे तो जहाँ 2700 डॉक्टर होने चाहिए थे वहां आज 1800 डॉक्टर्स क़े पद खाली पड़े हुए हैं |

ये सभी आंकड़ें इस बात की तरफ साफ इशारा करते हैं कि अभी देवभूमि कहे जाने वाले राज्य को उसके लोगों के लिये देवलोक बनाने के लिये बहुत कुछ किया जाना बाकी है।